संयम रखने पर पाप रूपी श्रृगाल नहीं कर पाएगा आक्रमण : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संयम रखने पर पाप रूपी श्रृगाल नहीं कर पाएगा आक्रमण : आचार्यश्री महाश्रमण


जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने जिनवाणी का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में धर्म भी जीवित है तो अधर्म भी जीवित है। ऐसा कोई भी समय नहीं आता है, जब दुनिया में धर्म का सर्वथा लोप हो जाये और ऐसा भी समय नहीं आता है, जब दुनिया में किसी भी रूप में अधर्म नहीं रहता है। दोनों का अस्तित्व हमेशा बना रहता है। दुनिया में हिंसा, असंयम भी होता है, भोग विलास भी हो सकता है, आदमी प्रयास करे कि मेरे जीवन में अधर्म न्यूनता की ओर जाए और धर्म विकास की ओर बढ़े। प्रश्न है कि धर्म क्या है? शास्त्रकार ने बताया कि अहिंसा, संयम और तप धर्म है। आत्मशुद्धि की दृष्टि से ये तीन आध्यात्मिक धर्म हैं। साधु तो धार्मिक होते ही हैं, श्रावक भी धार्मिक होते हैं। साधु महाव्रती तो श्रावक देशव्रती होते हैं।
पांच महाव्रतों और सर्व सावद्य योग प्रत्याख्यान को प्राप्त हो जाना तो अनन्त काल की जीवन-यात्रा में बहुत ही महत्वपूर्ण बात हो जाती है। गृहस्थ को भी गृहवासी रहते हुए जीवन में जितना हो सके धर्म का आराधन करने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ अपने जीवन में अहिंसा धर्म का पालन करे। आत्महत्या, निरपराध प्राणी की हत्या, मांसाहार, रात्रि भोजन, जमीकंद आदि का त्याग, दया, अनुकम्पा आदि के द्वारा जीवन में अहिंसा धर्म का विकास किया जा सकता है। अहिंसा जीवन में आए, सात व्यसनों को भी छोड़ दिया जाए तो जीवन में धार्मिक चेतना का विकास हो सकता है। अहिंसा का पालन ऊर्ध्व गति का रास्ता है, हिंसा का कार्य अधोगति का मार्ग है।
संयम धर्म है। जीवन में अनेक रूपों में संयम आ सकता है। खान-पान का संयम, रहन-सहन का संयम, इन्द्रिय संयम, वाणी का संयम भी किया जा सकता है। संयम रखने पर पाप रूपी श्रृगाल हम पर आक्रमण नहीं कर सकता। गृहस्थ जीवन में सादगी रहे, जीवन सादा रहे, आचार-विचार ऊंचा रहना चाहिए। तप धर्म है। उपवास, वर्षीतप, मासखमण आदि तपस्या है, स्वाध्याय, ध्यान आदि भी तपस्या के प्रकार हैं। हम तप की साधना करें, कर्म निर्जरा का प्रयास करें। तपस्या से आत्मा का तेज निखरता है, आत्मा निर्मलता को प्राप्त होती है। आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संयम और तप का आचरण करना चाहिए। संवर और निर्जरा की साधना से आत्मा मोक्ष को प्राप्त हो सकती है। नव तत्वों में धर्म का सार है। इन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर संयम और तप की साधना चलती है तो मोक्ष प्राप्ति की दिशा में गति हो सकती है। अभव्य जीव नव ग्रैवेयक तक जा सकता है पर मोक्ष में नहीं जा सकता है। अभव्य प्राणी को कभी भव्य नहीं बनाया जा सकता, वह सम्यकत्वी नहीं बन सकता। पुरुषार्थ की भी एक सीमा है, नियति का अपना क्षेत्र है। पुरुषार्थ से संभाग्य सफलता मिल सकती है, असंभाग्य सफलता नहीं मिल सकती। व्यक्ति को उचित क्षेत्र में पुरुषार्थ करना चाहिए। हम अहिंसा, संयम और तप की आराधना कर मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ें। पूज्यप्रवर के स्वागत में जैन श्री संघ महिला मंडल ने स्वागत गीत की प्रस्तुति दी। जैन श्री संघ के पराश मरलेचा एवं ललित गेलड़ा ने अपने विचार व्यक्त किए। प्रेक्षा भंसाली एवं पुष्पा छाजेड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।