सद्प्रवृत्ति से आत्मा को मित्र बनाने का करें प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान कराते हुए फरमाया कि अध्यात्म जगत में आत्मवाद के सिद्धान्त का अपना महत्व है। आत्मा के संदर्भ में जैन वांगम्य में, आगम साहित्य व अन्य ग्रन्थों में अच्छा प्रकाश प्राप्त होता है। 'आयावाओ' ग्रंथ में आत्मवाद से सम्बंधित सामग्री प्राप्त होती है। आत्मा को अनादि कहा गया है। जैन धर्म का सिद्धान्त है कि आत्माएं अनन्त है। हमेशा अनन्त आत्माएं थी और रहेगी। एक भी आत्मा कोई नई पैदा नहीं होती और एक भी आत्मा विनाश को प्राप्त नहीं होती। एक भी परमाणु, पुद्गल न कभी घटता है न कभी बढ़ता है।
दु:ख और सुख की कर्त्ता स्वयं आत्मा है। आत्मा ही कर्म करती है और भोगती भी है। आत्मा ही कर्मों की निर्जरा भी करती है। जब आदमी को दु:ख भोगना होता है, उसमें से कोई भी मित्र, पारिवारिक जन हिस्सा नहीं ले सकते हैं। आत्मवाद के साथ कर्मवाद का सिद्धान्त भी जुड़ा हुआ है। कर्म के समान दूसरा कोई नहीं है। बड़े से बड़े आदमी को अपने कर्म स्वयं को ही भोगने पड़ते हैं। मेरी आत्मा मेरी मित्र है तो मेरी आत्मा मेरी शत्रु भी बन सकती है। सद्वृत्ति में लगी आत्मा खुद की मित्र बन जाती है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई खुद की आत्मा खुद की शत्रु बन जाती है।
हिंसा-दया आदि सद्प्रवृति है। हिंसा की भावना दुष्प्रवृत्ति है। संयम की साधना सद् है तो असंयम असद् है। समता, सहनशीलता, क्षमाशीलता, ऋजुता, निरहंकारिता, संतोष सद्प्रवृत्ति है। धर्म की प्रवृत्तियां सद् प्रवृत्तियां है, पाप की प्रवृत्तियां असद् प्रवृत्तियां है। हमारी आत्मा हमारी मित्र बने, दुश्मन न बने। गार्हस्थ्य में रहते हुए भी अपनी आत्मा को मित्र बनाने का प्रयास होना चाहिए। निर्मल सन्यास का जीवन पा लेना जीवन की अच्छी उपलब्धि हो सकती है। सन्यास का धागा अखण्ड और निर्मल रहे।
गृहस्थों के जीवन में ईमानदारी रहे, माया-मृषा का उपयोग न करें। गुस्सा भी न करें, शांति से बात कहें। सूखे घास पर आग पड़ेगी तो भभक जाएगी, सूखे मैदान पर उसका कुछ असर नहीं होगा। हम अतृण बनकर रहें। क्षमाशीलता से आत्मा मित्र बन जाती है। असंयम आत्मा को शत्रु बनाने वाला होता है। अठारह पाप का आचरण आत्मा को दुश्मन बनाने वाला होता है। हम आत्मा को सद्प्रवृत्ति से मित्र बनाने का प्रयास करें।
पूज्य प्रवर के मंगल प्रवचन के उपरांत साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि मनुष्य जन्म से श्रेष्ठ इस दुनिया में कुछ नहीं है। बड़े भाग्य वाले को मनुष्य जन्म मिलता है। मनुष्य में विवेक शक्ति है कि कौनसा कार्य करणीय या अकरणीय है। मनुष्य जन्म से ही आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। मनुष्य धर्म के कारण अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। पूज्यप्रवर के स्वागत में पीयूष छाजेड़, पंकज छाजेड़, नंदलाल छाजेड़, एवं प्रिंसिपल राजेंद्र गवली ने अपने विचार व्यक्त किए। तेरापंथ महिला मंडल, युवा सदस्य एवं छाजेड़ परिवार की बेटियों ने अलग-अलग गीत का संगान कर अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।