धर्म है उत्कृष्ट मंगल
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने अपने शिष्य मुनि भारमलजी पर यह प्रतिबन्ध लगाया कि यदि कोई गृहस्थ तुम्हारी त्रुटि निकाले तो तुम्हें दण्ड- स्वरूप एक 'तेला' (तीन दिन का उपवास) करना पड़ेगा।
मुनि भारमलजी ने कहा- 'भगवन्! द्वेषी जन बहुत हैं, अतः संभव है कि कोई द्वेषवश झूठी ही त्रुटि बतलाने लगे।
स्वामीजी बोले- 'यदि तुम्हारी त्रुटि हो तो तुम उसके प्रायश्चित्त- स्वरूप तेला कर देना और यदि किसी ने द्वेषवश झूठी ही त्रुटि निकाले तो अपने पूर्व कर्मों का उदय समझ कर तेला कर देना। तेला तो हर हालत में तुम्हें करना ही है।
प्रायश्चित्त देने का अधिकारी भी अर्हता-सम्पन्न होना चाहिए। 'ठाणं' में उल्लिखित है कि दस स्थानों से संपन्न अनगार आलोचना देने के योग्य होता है
१. आचारवान् - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों से युक्त।
२. आधारवान्- आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान समस्त अतिचारों को जानने वाला।
३. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहारों को जानने वाला।
४. अपव्रीडक - अलोचना करने वाले व्यक्ति में, वह लाज या संकोच से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके, वैसा साहस उत्पन्न करने वाला।
५. प्रकारी - आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला।
६. अपरिश्रावी - आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट न करने वाला।
७. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके ऐसा सहयोग देने वाला।
८. अपायदर्शी - प्रायश्चित्त-भङ्ग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला।
६. प्रियधर्मा - जिसे धर्म प्रिय हो।
१०. दुढ़धर्मा - जो आपात्काल में भी धर्म से विचलित न हो।
इयाणि णो जमहं पुव्व मकासी पमाएणं- अब मैं वह नहीं करूंगा, जो मैंने पहले प्रमादवश किया है-यह संकल्प जिस व्यक्ति के मन में जाग जाता है वह विशुद्धता को प्राप्त हो जाता है।
प्रायश्चित्त करना भी एक तप है। उसके लिए भी अर्हता निर्धारित की गई है। हर कोई व्यक्ति प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं कर सकता। ठाणं में उल्लिखित है दस स्थानों से सम्पन्न अनगार अपने दोषों की आलोचना करने के लिए योग्य होता है- जातिसंपन्न, कुलसंपन्न, विनयसंपन्न, ज्ञानसंपन्न, दर्शनसंपन्न, चारित्रसंपन्न, क्षांत, दांत, अमायावी, अपश्चात्तापी।
बच्चे की भांति सरल बनकर जो अपने प्रमाद को गुरु आदि के सम्मुख रख सकता है वह गलती का शोधन कर सकता है। ऋजुता के बिना तो प्रायश्चित्त की अर्हता ही नहीं आती। यह प्रायश्चित्तदाता का दायित्व है कि वह उसकी ऋजुता का किञ्चित् भी दुरुपयोग न करे।
तेरापंथ के इतिहास का प्रसंग है कि एक स्थानकवासी साधु आचार्य भिक्षु से मिलने आए। उन्होंने स्वामीजी को एकान्त में ले जाकर कुछ समय तक उनसे वार्तालाप किया और वापस चले गए। स्वामीजी ने उस घटना की कोई बात नहीं चलाई, तो उत्सुकतावश मुनि हेमराजजी, जो कि स्वामीजी के शिष्य थे, ने पूछ लिया वे क्या कह रहे थे? स्वामीजी ने कहा- 'किसी दोष की आलोचना करने आए थे।' मुनि हेमराजजी ने जिज्ञासा से फिर पूछा- 'किस दोष की आलोचना?
स्वामीजी ने तत्काल कहा- 'यह बतलाना नहीं कल्पता।'
चलने वाला व्यक्ति कहीं गिर भी सकता है। एक संस्कृत श्लोक मननीय है
गच्छतः स्खलना क्वापि, भवत्येव प्रमादतः ।
हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति साधवः ।।
चलता हुआ कोई व्यक्ति प्रमादवश गिर जाता है तो उसे देखकर दुर्जन हंसते हैं और सज्जन उसे समाधान देते हैं, उठने में उसका सहयोग करते हैं।