संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

केशी ने गौतम से पूछा-भंते! आप दुष्ट अश्व पर चढ़कर चले जा रहे हैं, क्या वह आपको उन्मार्ग में नहीं ले जाता?
गौतम ने कहा-मैंने उसे श्रुत की लगाम से बांध रखा है। वह मेरे वश में है। वह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट अश्व है वह मन है। वह मेरे अधीन है, उस पर मेरा पूरा नियंत्रण है। इस नियंत्रण के द्वारा वह मेरी आज्ञा का पालन करता है।
केशी ने पूछा-भंते! लोक में कुमार्ग बहुत हैं। आप उनमें कैसे नहीं भटकते ?
गौतम ने कहा-मुने! जो मार्ग और कुमार्ग हैं, वे सब मुझे ज्ञात हैं। जो कुप्रवचन के व्रती हैं, वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो वीतराग का मार्ग है, वह सन्मार्ग है, वह उत्तम मार्ग है। मैं दोनों को जानता हूं। अतः भटकने का प्रश्न ही नहीं आता।
केशी ने पूछा-भंते! तुम्हारा शत्रु कौन है?
गौतम ने कहा-मुने! एक न जीती हुई आत्मा शत्रु है, कषाय और इंद्रियां शत्रु हैं। मैं उन्हें जीतकर विहरण करता हूं।
केशी ने पूछा-भंते! पाश-बंधन क्या है?
गौतम ने कहा-मुने! प्रगाढ़ राग, प्रगाढ़ द्वेष और स्नेह-ये पाश हैं, बंधन हैं। इनसे जीव कर्म-बद्ध होता है। ये संसार के मूल हैं।
केशी ने पूछा-भंते! हृदय के भीतर जो उत्पन्न लता है, जिसके विषतुल्य फल लगते हैं, उसे आपने कैसे उखाड़ा? वह लता क्या है?
गौतम ने कहा-मुने! भव तृष्णा को लता कहा गया है। वह भयंकर है। उसमें भयंकर फलों का परिपाक होता है। मैंने उसे सर्वथा काटकर उखाड़ फेंका है। मैं विष फल के खाने से मुक्त हूं।
केशी ने पूछा-भंते! अग्नि किसे कहते हैं?
गौतम ने कहा-मुने! क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार अग्नियां हैं। ये सदा प्रज्वलित रहती हैं। श्रुत, शील और तप-यह जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर, निस्तेज बनी हुई ये अग्नियां मुझे नहीं जलाती।
३९. येनात्मा साधितस्तेन, विश्वमेतत् प्रसाधितम् । 
येनात्मा नाशितस्तेन, सर्वमेव विनाशितम् ।।
जिसने आत्मा को साध लिया, उसने विश्व को साध लिया। जिसने आत्मा को गंवा दिया, उसने सब कुछ गंवा दिया।
४०. गच्छेद् दृष्टेषु निर्वेदं, अदृष्टेषु मतिं सृजेत् । 
दृष्टाऽदृष्टविभागेन, नैकान्ते स्थापयेन्मतिम् ।।
आत्मदर्शी साधक दृष्ट-पौद्रङ्गलिक वस्तु से विरक्त बने और अदृष्ट-आत्मिक तत्त्व की प्राप्ति के लिए बुद्धि लगाए। दृष्ट औरं अदृष्ट के विभाग को समझ कर एकांत केवल दृष्ट में मति का नियोजन न करे।
साध्य दृष्ट नहीं, अदृष्ट है। दृष्ट इन्द्रियां हैं और उनके विषय। जो व्यक्ति इनमें आकृष्ट होता है; वह अदृष्ट आत्मानंद से हाथ धो लेता है। आगम में कहा है-अमूर्त आत्मा मन और इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकती। इन्द्रिय सुख अनित्य है। आत्मिक सुख नित्य है। इसलिए भर्तृहरि ने साधक को सावधान करते हुए कहा है- 'भोग क्षणभंगुर हैं, साधक ! तू इनमें प्रेम मत कर।' साधक भोग में रोग-भय देखे, अदृष्ट के प्रति पूर्ण आस्थावान बने।