धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

ठाणं के दसवें स्थान में दस प्रकार के प्रायश्चित्त बतलाए गए हैं-
१. आलोचना योग्य - गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन।
२. प्रतिक्रमण योग्य - 'मिथ्या मे दुष्कृतम्'- मेरा दुष्कृत मिथ्या हो, इसका भावनापूर्वक उच्चारण।
३. तदुभय योग्य - आलोचना और प्रतिक्रमण।
४. विवेक योग्य - अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग।
५. व्युत्सर्ग योग्य - कायोत्सर्ग।
६. तप योग्य - अनशन, ऊनोदरी आदि।
७. छेद योग्य- दीक्षा पर्याय का छेदन।
८. मूल योग्य- पुनर्दीक्षा।
६. अनवस्थाप्य योग्य- तपस्या पूर्वक पुनर्दीक्षा।
१०. पारांचिक योग्य - भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक पुनर्दीक्षा।
प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का आधार है अपराध की विभिन्नता, लघुता और गुरुता।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (सभाष्यानुसारिणी टीका) में प्रायश्चित्त के नौ प्रकार बतलाए गए हैं- आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थापन। इनमें परिहार का अर्थ है दोषी के साथ वन्दना, आलाप, आहार-पानी आदि का संबंध विच्छेद कर देना। इसकी अवधि एक मास से लेकर छह मास तक की होती है।
उपस्थापन का अर्थ ठाणं में निर्दिष्ट 'मूल' से मिलता है। शेष सभी शब्दशः व अर्थशः ठाणं के वर्गीकरण से मिलते-जुलते हैं।
प्रायश्चित्त की अनेक परिभाषाएं की जा सकती हैं-
१. अतिचार (दोष) की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न प्रायश्चित्त है।
२. जिससे पाप का छेदन होता है वह प्रायश्चित्त है।
३. जिससे अपराध का शोधन होता है वह प्रायश्चित्त है।
आभ्यन्तर तप के छह प्रकारों में प्रथम और निर्जरा के बारह भेदों में सप्तम स्थान पर अवस्थित 'प्रायश्चित्त? नामक तप साधकों के लिए आधारभूत है। इसके सहारे पतित भी पावन हो जाते हैं। जिनसे कभी कोई गलती नहीं होती, ऐसे छद्मस्थ व्यक्ति तो कितने मिल पाएंगे? इस संदर्भ में संस्कृत का श्लोक मननीय है-
स्खलित : स्खलितो वध्य, इति चेन्निश्चितं भवेत्।
द्वित्रा एव हि शिष्येरन्, बहुदोषा हि मानवाः ।।
गलती करने वाला खत्म कर दिया जाए-यदि यह सिद्धान्त मान्य हो जाए तो दो-तीन आदमी ही बचेंगे, क्योंकि मनुष्य दोष बहुल होते हैं।
विनम्रता का प्रयोग
तेरापंथ धर्म संघ के प्रवर्तक थे आचार्य भिक्षु। मैंने उनको साक्षात् देखा नहीं, उनके शिष्य समुदाय को भी नहीं देखा और देखा हो तो याद नहीं। पर उनके बारे में कुछ सुना है, कुछ पढ़ा है, चिन्तन-मनन भी कुछ किया है। उससे निष्पन्न ज्ञान-चक्षु से मैं आचार्य भिक्षु और उनके कुछ शिष्यों को कुछ- कुछ देखने में समर्थ हूं। खेतसीजी स्वामी आचार्य भिक्षु के एक सन्त शिष्य थे। मैं उन्हें विनम्रता की प्रतिमूर्ति के रूप में देखता हूं। उनके लिए कहा जाता है कि स्वामीजी (आचार्य भिक्षु) जब उन्हें किसी कार्य के लिए पुकारते तब यह देख लिया जाता कि उनके हाथ में पात्र आदि कोई गिर कर टूट जाने वाली वस्तु तो नहीं हैं तथा उन तक कोई निर्देश प्हुंचाते समय भी निर्देश ले जाने वाले को स्वामीजी सावधान कर दिया करते थे कि निर्देश सुनाने से पहले यह देख लेना कि उसके हाथ में कोई वस्तु तो नहीं है। संभवतः स्वामीजी के द्वारा आहान करने पर तथा निर्देश देने पर हाथ जोड़ने को शीघ्रता में वे अपने हाथ में स्थित वस्तु को भूल जाते थे और वह गिरकर टूट जाती थी। कई बार ऐसा होने से स्वामीजी आदि सभी यह ध्यान रखा करते थे।