संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

अदृष्ट के बिना दृष्ट का कोई अर्थ नहीं होता। दृष्ट के पीछे अदृष्ट की शक्ति काम कर रही है। यह स्पष्ट है किन्तु वहां तक पहुंच कठिन है। अंधी, बहरी 'हेलन कीलर' से पूछा-इस संसार में सबसे आश्चर्यजनक घटना क्या है? उसने कहा-लोगों के पास कान हैं, पर शायद ही कोई सुनता हो, लोगों के पास आंखें हैं पर शायद ही कोई देखता हो और लोगों के पास हृदय है पर शायद ही कोई अनुभव करता हो। बस, यही आश्चर्यजनक घटना है। 'हेलन कीलर' का आशय है-मनुष्य अपने सेंटर (केन्द्र) अदृश्य से परिचित नहीं है।
दृष्ट का आकर्षण व्यक्ति को मूढ़ बना देता है। जो बाहर में उलझ जाए वही मूढ़ होता है, भले, चाहे वह विद्वान् हो या अविद्वान्। वस्तुएं जब व्यक्ति को पकड़ लेती हैं। तब कैसे वह अदृष्ट को खोज सकता है। महावीर कहते हैं-दृश्य जगत ही सब कुछ नहीं है। दृश्य जगत की उपादेयता अदृश्य के होने पर ही है। इन्द्रियां, मन अदृश्य की शक्ति के बिना व्यर्थ हैं। इन्द्रिय जगत के पीछे उनका एक संचालक है। उसे भूलना ही संसार है। साधक दृष्ट में विरक्त हो और अदृष्ट में अनुरक्त हो, दृष्ट से वियुक्त हो और अदृष्ट से संयुक्त हो, दृष्ट में अज्ञ हो और अदृष्ट में विज्ञ हो-इसी से जीवन में एक नया आयाम खुल सकता है।
४१. श्रमणो वा गृहस्थो वा, यस्य धर्मे मतिर्भवत्। 
आत्माऽसौ साध्यते तेन, साध्ये कृत्वा स्थिरं मनः॥
जिसकी मति धर्म में लगी हुई है, वह श्रमण हो या गृहस्थ, साध्य में मन को स्थिर बनाकर आत्मा को साध लेता है।
आत्मा की जब आत्मा में स्थिति हो जाती है, तब उसका कार्य सिद्ध हो जाता है। इसका अधिकारी मुमुक्षु है। मुमुक्षुभाव की जिसमें जितनी प्रबलता होती है, वह उतना ही आत्मा के निकट पहुंच जाता है। मुमुक्षु के लिए जाति, वर्ण, क्षेत्र आदि की कोई मर्यादा नहीं है।
चाहे गृहस्थ हो या साधु, जो संयम के मार्ग पर बढ़ रहा है, जिसका मुमुक्षाभाव प्रज्वलित है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है।
भगवान् महावीर इतने उदारचेता थे कि उन्होंने लक्ष्य सिद्धि की बात किसी वेश, लिंग या व्यक्ति से नहीं जोड़ी। उन्होंने स्पष्ट कहा- 'चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, चाहे जैन हो या जैनेतर, चाहे स्त्री हो या पुरुष सब मुक्त हो सकते हैं, यदि वे अनुत्तर संयम का पालन करते हैं।'
आत्मा सबमें है, किन्तु उसके होने का अनुभव सबको नहीं है। जिसमें अनुभव है, आत्मा का जन्म वहीं है। जो उसे प्रकट करने में उद्यत होता है वही साधक होता है। फिर वह चाहे श्रमण-मुनि, भिक्षु हो या गृहस्थ। आत्मा का संबंध बाहर से नहीं, अंतर्जागरण से है। उसके लिए अभीप्सा प्रबल चाहिए। महावीर का यही घोष है कि आत्मवान बनो। अपने भीतर है उसे खोजो। अनात्मवान कोई भी हो सब समान है। जिसने आत्मा को साधा, पाया वही धन्यवादार्ह है। बुद्ध ने आनंद से कहा- 'आनंद तू धन्य है, जो प्रधान साधना में लग गया।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
साध्यसाधनसंज्ञाननामा त्रयोदशोऽध्यायः।
गृहस्थ-धर्म प्रबोधन
आचरण की दो प्रेरणाएं हैं-मूर्च्छा और विरति । मूर्च्छा-प्रेरित आचरण धर्म नहीं है। विरति प्रेरित आचरण धर्म है। गृहस्थ पदार्थ का संग्रह करता है, पदार्थ के बीच जीता है और पदार्थ का भोग करता है। सहज ही प्रश्न होता है-पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ धर्म की आराधना कैसे कर सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर ने विभज्यवादी दृष्टिकोण से दिया गृहस्थ धर्म की आराधना कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता। मूर्च्छा या आसक्ति की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। प्रत्याख्यान की शक्ति को विकृत बनाने वाली मूर्च्छा उपशांत या क्षीण होती है, तब विरति की चेतना प्रकट होती है। इस अवस्था में पदार्थ के मध्य रहने वाला गृहस्थ भी विरत हो सकता है, धर्म की आराधना कर सकता है। जितनी मूर्च्छा उतनी अविरति/असंयम। जितनी अमूर्च्छा उतनी विरति/संयम। अविरति और विरति अथवा मूर्च्छा और अमूर्च्छा के आधार पर भगवान् महावीर ने धर्म को दो भागों में विभक्त किया। प्रस्तुत अध्याय में इसी विषय की परिक्रमा है।