धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

वे विद्यावान् भी थे पर उनकी विद्या विनयविहीन नहीं थी। हमारे धर्मसंघ में वे 'सतयुगी' (सतयुग के व्यक्ति) अलंकरण से अलंकृत और विख्यात हुए। उनकी विशेषताओं ने उनको युवाचार्य पद तक पहुंचा दिया। युवाचार्य पद की प्राप्ति से भी अधिक उल्लेखनीय घटना है उसके साथ जुड़ी हुई उनकी निःस्पृहता। तेरापंथ के द्वितीय आचार्य श्री भारीमालजी स्वामी ने युवाचार्य-नियुक्ति-पत्र में दो संतों के नाम लिखे। प्रथम नाम मुनि खेतसीजी का था और द्वितीय नाम मुनि रायचंदजी का। ''सर्वं साध साध्वी खेतसीजी तथा रायचन्दजी की आगन्या मांहें चालणो।'' इस प्रकार युवाचार्य-नियुक्ति-पत्र में मुनि खेतसीजी के नाम का उल्लेख होने से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यश्री भारीमालजी के दिल में उनके प्रति कितना गहरा स्थान था।
दो नाम रखने का औचित्य न लगने पर युवाचार्य-नियुक्ति-पत्र में युवा मुनि रायचंदजी का ही नाम रखा गया। अपना नाम न रहने पर भी मुनि खेतसीजी ने जो निःस्पृहता और निर्लिप्तता का परिचय दिया वह उनकी विनम्रता (अहंकार विलय) का तो पुष्ट प्रमाण है ही, औरों के लिए बोधपाठ भी है। निर्जरा के बारह भेदों में आठवां है 'विनय'। यह कोई सामान्य तपस्या नहीं है। यह एक तप भी जीवन में भलीभांति आचरित हो जाता है तो जीवन अनेक विशेषताओं का धाम बन जाता है। इस तप से तप्त हुए बिना कल्याण की पूर्णता पर प्रश्नचिह बना रहता है। अहंकार का भाव अर्हकार में बदल जाए तो विनय का तप कृतकृत्य हो जाता है। संन्यासी ने एक बालक से पूछा- ''क्या तुम मेरा चेला बनोगे?''
''चेला क्या होता है?'' बालक ने पूछा।
''एक होता है चेला और एक होता है गुरु। गुरु का काम होता है हुक्म देना और चेले का काम होता है हुक्म को क्रियान्वित करना। लड़का होशियार था। बोला- थोड़ा सोच लेता हूं। दो-चार मिनट सोचकर उसने जवाब दिया- बाबाजी! गुरु बनाओ तो मैं बन जाऊं, चेला तो नहीं बनूंगा।''
इस प्रकार की अधिकार की भावना, नाम-ख्याति की कामना उस साधक में नहीं रहती अथवा दुर्बल हो जाती है जिसने अपने आपको 'विनय' की आंच से तपाया है।
आगम-साहित्य में विनय सात प्रकार विज्ञप्त हैं- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वाक् विनय, काय विनय, लोकोपचार विनय।
ज्ञान विनय
ज्ञान विनय के पांच प्रकार हैं- आभिनिबोधिकज्ञान विनय, श्रुतज्ञान विनय, अवधिज्ञान विनय, मनः पर्यवज्ञान विनय, विनय। मति आदि ज्ञान के प्रति श्रद्धा, भक्ति, बहुमान का प्रयोग ज्ञान विनय है। ज्ञानियों के प्रति अनाशातना-नम्रता का भाव, ज्ञानाभ्यास में विधियुक्तता का प्रयोग भी ज्ञान विनय के अन्तर्गत आ सकता है।
दर्शन विनय
दर्शन विनय के दो प्रकार हैं- शुश्रूषणा विनय और अनत्याशातना विनय। शुश्रूषणा विनय के अनेक प्रकार हैं, जैसे- सत्कार, सम्मान कृतिकर्म, अभ्युत्थान आदि-आदि।
अनत्याशातना विनय के पैंतालीस प्रकार हैं- अर्हत्, अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, क्रिया, सम्भोजी, आभिनिबोधिक आदि ज्ञानपञ्चक- इन पन्द्रह की आशातना न करना, इन पन्द्रह के प्रति भक्ति बहुमान का प्रयोग तथा इन पन्द्रह का वर्णसंज्वलन गुणवर्ण इस प्रकार १५ x ३ = ४५ प्रकार होते हैं। ये पैंतालीस प्रकार भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति के आधार पर प्रज्ञप्त हैं। विभिन्न आगमों एवं दिगम्बर साहित्य में तैंतीस आशातना के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। समवाओ में आशातना के तैंतीस प्रकार मिलते हैं। वे शैक्ष (नवदीक्षित या दीक्षापर्याय में छोटा मुनि) को रात्निक (दीक्षा पर्याय में बड़ा मुनि) के साथ किस प्रकार का व्यवहार वर्जित रखना चाहिए, इसका बोध प्रदान करने वाले हैं। इन्हें 'व्यवहार बोध' या 'व्यवहार प्रशिक्षण' कहा जा सकता है। इस संदर्भ में आशातना का भावार्थ होता है अशिष्ट या असभ्य व्यवहार। रात्निक से सटकर, आगे और बराबर चलना। इसी प्रकार सटकर, आगे और बराबर खड़ा होना, चलना आदि। इस तरह तैंतीस आशातनाएं हैं।