श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

(पिछला शेष)
'पुष्य! तुम ऊपर, नीचे-तिरछे कहीं भी देखो, धर्म का चक्र मेरे आगे-आगे चल रहा है। आचार मेरा छत्ररत्न है। उसमें जिस क्षण बीज बोया जाता है, उसी क्षण वह पक जाता है। क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूं? क्या तुम्हारे सामुद्रिक शास्त्र में धर्म-चक्रवर्ती का अस्तित्व नहीं है?'
'भंते! बहुत अच्छा। मेरा सन्देह निवृत्त हो गया है। अब मैं स्वस्थ होकर जा रहा हूं।'
भगवान् राजगृह की ओर चल पड़े। पुष्य जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया।'
ध्यान की व्यूह-रचना
महावीर का चक्रवर्तित्व प्रस्थापित होता जा रहा है। उनका स्वतंत्रता का अभियान प्रतिदिन गतिशील हो रहा है। चक्रवर्ती दूसरों को पराजित कर स्वयं विजयी होता है, दूसरों को परतंत्र कर स्वयं स्वतंत्र होता है। धर्म का चक्रवर्ती ऐसा नहीं करता। उसकी विजय दूसरों की पराजय और उसकी स्वतंत्रता दूसरों की परतंत्रता पर निर्भर नहीं होती। महावीर विजय प्राप्त कर रहे हैं-किसी व्यक्ति पर नहीं, किन्तु नींद पर, भूख पर और शरीर की चंचलता पर।
महावीर विजय प्राप्त कर रहे हैं-किसी व्यक्ति पर नहीं, किन्तु अहं पर, ममत्व पर और मन की चंचलता पर।
निद्रा-विजय
नींद जीवन का अनिवार्य अंग है। महावीर को शरीर शास्त्रीय नियम के अनुसार छह घंटा नींद लेनी चाहिए। पर वे इस नियम का अतिक्रमण कर रहे हैं। वे महीनों तक निरंतर जागते रहते हैं। उनके सामने एक ही कार्य है-ध्यान, ध्यान और निरंतर ध्यान।
जागृति की अवस्था में मनुष्य बाहर से जागृत और भीतर से सुप्त रहता है। तन्द्रा की अवस्था में मनुष्य न पूर्णतः जागृत रहता है और न पूर्णतः सुप्त ही। सुषुप्ति में मनुष्य बाहर से भी सुप्त रहता है और भीतर से भी। आत्म-जागृति (तूर्या) में मनुष्य बाहर से सुप्त और भीतर में जागृत रहता है। इस अवस्था में वह स्वप्न या संस्कारों का दर्शन करता है।
गाड़ आत्म-जागृति में मनुष्य बाहर से सुप्त और भीतर से जागृत रहता है। इस अवस्था में चित्त शांत और संकल्प-विकल्प से विहीन हो जाता है।
महावीर कभी आत्म-जागृति और कभी गाड़ आत्म-जागृति की अवस्था में चल रहे हैं। जागृति, तन्द्रा और सुषुप्ति की अवस्था को वे दीक्षित होते ही पार कर चुके हैं। प्रबुद्ध ने पूछा, 'महावीर ने साढ़े बारह वर्षों में कुल मिलाकर अड़तालीस मिनट नींद ली, यह माना जाता है। क्या यह सही है?' 'मैं भगवान् के पास नहीं था। मैं कैसे कहूं कि यह सही है और मैं पास में नहीं था, इसलिए यह भी कैसे कहूं कि यह सही नहीं है।'
'क्या सब बातें प्रत्यक्ष देखकर ही कही जाती हैं?'
'नहीं, ऐसा कोई नियम नहीं है।'
'तब फिर मेरे इस प्रश्न के लिए ही यह तर्क क्यों? क्या इसे जानने का कोई आधार नहीं है?'
'नहीं क्यों? आचारांगसूत्र का बहुत प्रामाणिक आधार है।'
'क्या उसमें लिखा है कि भगवान् ने केवल अड़तालीस मिनट नींद ली?'
'नहीं, उसमें ऐसा नहीं है।'
'तो फिर क्या है?'
'उसमें बताया है-भगवान् प्रकाम नींद नहीं लेते थे, बहुत नहीं सोते थे। वे
अधिक समय आत्मा को जागृत रखते थे।1