संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

मेघः प्राह
१. गृहप्रवर्तन लग्नो, गृहस्थो भोगमाश्रितः ।
धर्मस्याराधनां कर्तुं, भगवन् ! कथमर्हति ?
मेघ बोला-भगवन् ! जो गृहस्थ भोग का सेवन करता है और गृहस्थी चलाने में लगा हुआ है, वह धर्म की आराधना कैसे कर सकता है?
महावीर ने कहा है-व्यक्ति गृहस्थ वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है और साधु वेश में भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ में और इसके बाहर भी मुक्ति का द्वार बन्द नहीं है। यह दृष्टिकोण सम्पूर्ण सत्य पर आधारित है। मेघ की दृष्टि में यह प्रतिपादन नवीन था। उसे शंका हुई कि गृहस्थ साध्य को कैसे प्राप्त कर सकता है, जब कि वह गृहकार्यों में संलग्न रहता है? मुक्त श्रमण ही हो सकता है, इसलिए लोग घर छोड़कर प्रव्रजित होते हैं। यदि गृहस्थ जीवन में मुक्ति साध्य हो सकती है तो कौन श्रमण, भिक्षु बनने का कष्ट उठाएगा ?
दूसरा कारण यह भी रहा कि श्रमण परम्परा में श्रमण होने पर बल दिया गया। गृहस्थ जीवन में सत्य की घटना घटने के विरल ही उदाहरण हैं। श्रमण ही सब पापों से मुक्त हो सकता है-ऐसे संस्कारों के कारण लोगों का झुकाव श्रामण्य की ओर हुआ, श्रमण सम्मानित हुए और गृहस्थ अपूज्य। गृहस्थों के लिए मोक्ष का द्वार प्रायः बन्द जैसा रहा। गृहस्थ कितनी ही ऊंची साधना करे, वह श्रमण से नीचा ही है-ऐसी स्थिति में यह शंका कोई आश्चर्यजनक नहीं है।
भगवान् प्राह
२. देवानुप्रिय ! यस्य स्याद्, आसक्तिः क्षीणतां गता।
धर्मस्याराधनां कुर्यात्, स गृहे स्थितिमाचरन् ।
भगवान् ने कहा-देवानुप्रिय ! जिस व्यक्ति की आसक्ति
क्षीण हो जाती है वह घर में रहता हुआ भी धर्म की आराधना कर सकता है।
३. गृहेऽप्याराधना नास्ति, गृहत्यागेऽपि नास्ति सा।
आशा येन परित्यक्ता, साधना तस्य जायते ॥
धर्म की आराधना न घर में है और न घर को छोड़ने में। उसका अधिकारी गृहस्थ भी नहीं है और गृहत्यागी भी नहीं है। उसका अधिकारी वह है, जो आशा को त्याग चुका है।
भगवान् का कथन है-मैंने साधक और गृहस्थ में कोई भेद-रेखा नहीं खींची है। साध्य की साधना के लिए प्रत्येक क्षेत्र खुला है। साधना हर कहीं हो सकती है। वह दिन में भी हो सकती है और रात में भी हो सकती है। अकेले में भी हो सकती है, बहुतों के बीच भी हो सकती है। सोते भी हो सकती है और जागते हुए भी। घर में भी हो सकती है और घर का त्याग करने पर भी। इसके लिए कोई प्रतिबंध नहीं है। प्रतिबंध एक ही है और वह है-आसक्ति का त्याग होना चाहिए। इन्द्रिय और इन्द्रिय विषयों में जब तक अनुराग है तब तक मुक्ति नहीं है, फिर भले वह साधक हो या गृहस्थ। आशा, इच्छा और आकर्षण ही बंधन है।
४. नाशा त्यक्ता गृहं त्यक्तं, नासौ त्यागी न वा गृही।
आशा येन परित्यक्ता, त्यागं सोऽर्हति मानवः ।।
जिसने घर का त्याग किया किन्तु आशा का त्याग नहीं किया, वह न त्यागी है और न गृहस्थ। वही मनुष्य त्याग का अधिकारी है, जो आशा को त्याग चुका है।