संबोधि
त्यागी वह नहीं है जिनके पास वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री, शय्या आदि भोग-सामग्री नहीं है किन्तु त्यागी वह है जो प्राप्त भोग-सामग्री को विरक्त होकर ठुकराता है। पदार्थों के प्रति फिर उसका कोई आकर्षण नहीं रहता। भगवान् महावीर से पूछा- 'भगवन् ! प्रत्याख्यान से आत्मा को क्या प्राप्त होता है?
भगवान् ने कहा-'त्याग से व्यक्ति वितृष्ण हो जाता है। मन को भाने वाले और न भाने वाले पदार्थों में उसका राग-द्वेष नहीं रहता।'
'उल्लो सुबको य दो छूढा, गोलिया मट्टिया मया।
दोवि आर्वाडया कुड्डे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई।।'
(उत्तर० २५/४०)
'सूखे और गीले दो मिट्टी के गोले हैं। दोनों को भीत पर फेंका जाता है, जो सूखा होता है वह भीत पर नहीं चिपकता, किन्तु जो गीला है वह चिपक जाता है।'
यह आसक्ति का स्वरूप है। आसक्ति स्नेह है। स्नेह पर रजकण चिपकते हैं, अनासक्त पर नहीं। वस्तुएं निर्जीव हैं, उनमें न बंधन है और न मुक्ति। बंधन व मुक्ति आशा और अनाशा में है।
५. पदार्थत्यागमात्रेण, त्यागी स्याद् व्यवहारतः।
आसक्तेः परिहारेण, त्यागी भवति वस्तुतः॥
जो व्यक्ति केवल पदार्थों का त्याग करता है, किन्तु उसकी वासना का त्याग नहीं करता वह व्यवहार-दृष्टि से त्यागी है, वास्तव में नहीं। वास्तव में त्यागी वही है जो आसक्ति का त्याग करता है।
६. पूर्णत्यागः पदार्थानां, कर्तुं शक्यो न देहिभिः।
आसक्तेः परिहारस्तु, कर्तुं शक्योऽस्ति तैरपि॥
देहधारियों के लिए पदार्थों का सर्वथा परित्याग करना संभव नहीं होता किन्तु वे आसक्ति का सर्वथा परित्याग कर सकते हैं।
७. यावानाशापरित्यागः, गेहवासिभिः।
क्रियते तावान् धर्मो मया प्रोक्तः, सोऽगारधर्म उच्यते॥
गृहवासी मनुष्य आशा का जितना परित्याग करते हैं, उसी को मैंने धर्म कहा है और वही अगार-धर्म कहलाता है।
शरीर की विद्यमानता में इन्द्रियां हैं और इन्द्रियों की सत्ता में विषयों का ग्रहण भी। किन्तु ये अपने आप में बंधनकारक नहीं हैं। बंधन का निमित्त है-आशा, इच्छा, अनुराग और आसक्ति। व्यक्ति इन्द्रिय विषयों से उपरत नहीं हो सकता लेकिन उनमें जो आकर्षण है, इच्छा है, उसे वह छोड़ सकता है। आशा-त्याग ही धर्म है। गीता का अनासक्त योग और जैन धर्म का आशा-त्याग एक ही है। किसी भी देहधारी आदमी के लिए कर्म का पूर्ण त्याग कर देना असंभव है। परन्तु जो कर्मों के फलों को त्याग देता है वही त्यागी कहलाता है। आसक्ति त्याग का जिस मात्रा में अभ्यास है उसी मात्रा के अनुसार आत्मा धर्म या मोक्ष के सन्निकट है।
८. सम्यक्श्रद्धा भवेत्तत्र, सम्यक्ज्ञानं प्रजायते।
सम्यक्चारित्रसम्प्राप्तेः, योग्यता तत्र जायते।।
जिसमें सम्यक्-श्रद्धा होती है, उसी में सम्यक् ज्ञान होता है और जिसमें ये दोनों होते हैं उसी में सम्यक् चारित्र की प्राप्ति की योग्यता होती है।