धर्म है उत्कृ्ष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृ्ष्ट मंगल

(पिछला शेष)
लोकोपचार विनय
लोकोपचार विनय के सात प्रकार हैं-
अभ्यासवर्तिता (गुरु आदि के समीप रहना),
परच्छन्दानुवर्तिता (आराध्य के अभिप्राय के अनुकूल वर्तन), कार्य हेतु (ज्ञान आदि के लिए भोजन आदि देना), कृत प्रति कृतिता (विनय से प्रसन्न किए गए गुरु श्रुत देंगे इस भावना से भोजन आदि देना), आर्त्तगवेषण (ग्लान को भैषज्य आदि से लाभान्वित करना), देशकालज्ञता (अवसरोचित कार्य सम्पादन करना), सर्वार्थ अप्रतिलोमता (आराध्य संबंधी सभी प्रयोजनों में अनुकूल रहना)।
विनय की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं- आशातना न करना, न कराना और बहुमान करना विनय है। जिससे कर्म का शीघ्र विनयन (नाश) होता है, वह विनय है।
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स्वार्थ-विलय का प्रयोग
विनम्रता की प्रतिमूर्ति और सेवाभावी सन्त खेतसी ने अपने परम श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य भिक्षु से कहा- 'कल रात्रि में आपको लघुशंका के लिए बहुत उठना पड़ा, बहुत परिश्रम हुआ ! स्वामीजी (श्री भिक्षु) ने इस कथन को गम्भीरता से ले लिया। उन्हें लगा कि इसे रात को बहुत बार जगाना पड़ा था, इसीलिए यह ऐसा कह रहा है। उन्होंने कहा- 'हां, रात को मुझे तो तकलीफ थी ही, पर साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार उठाने से तकलीफ हुई। आज रात को भी पता नहीं स्वास्थ्य की कैसी स्थिति रहे, परन्तु आज रात को तुझे जगाने का त्याग है।'
स्वामीजी के इस अप्रत्याशित निर्णय ने मुनि खेतसी को एकदम चकित कर दिया। वे कहने लगे- 'यह आपने क्या किया? मैंने अपने जागरण के कष्ट से घबराकर आपसे यह निवेदन थोड़े ही किया धा? खैर ! आपको जगाने का त्याग है तो मुझे आज रात में सोने का ही त्याग है।' वे सारी रात जाग कर स्वामीजी की सेवा करते रहे।
'शासन समुद्र' से उद्धृत यह घटना, जो कि श्रुतानुश्रुत चलती आई है, गुरुभक्ति व सेवाभावना का अनुकरणीय उदाहरण है। सेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ने वालों के लिए बोधपाठ है। इस घटना अथवा बात से शिष्यों को गुरु-सेवा की शिक्षा मिलती है।
एक बात और, जो मैंने स्थविर मुनिवर से सुनी है तथा जिस रूप में स्मृति पटल में है, उल्लिखित कर रहा हूं। एक जैन आचार्य थे। उनके अनेक शिष्य थे। उनमें से एक मुनि कुष्ठ रोग से आक्रान्त हो गया। साधुओं ने उसके साथ आहार करना छोड़ दिया। लगता है उसने अपने आपको उपेक्षित और असहाय समझा। साधु जीवन से उसका मन विचलित हो गया। आचार्यप्रवर को इस बात का पता चला। वे उसके पास गए, उसको वात्सल्य और आश्वासन दिया। आहार का समय हुआ। आचार्य श्री ने उस साधु को बुलाया और कहा 'हम दोनों साथ में आहार करें।' गुरु की इस करुणा ने उस मुनि के विचार को बदल दिया। गुरु-कृपा का अपार पारावार उसकी बीमारी और मनोमालिन्य दोनों को साफ कर गया। गुरु को रोगी के साथ बैठकर आहार करते हुए देखा तो अन्य साधुओं को भी सेवा और वात्सल्य का बोध पाठ मिला।
मौके पर किस प्रकार आचार्य भी अपने शिष्यों का मार्ग प्रशस्त करते हैं, उन्हें सम्बल प्रदान करते हैं, प्रस्तुत वार्ता उसका उदाहरण है।
सेवा धर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः- यह सूक्त सेवा को महत्ता को प्रदर्शित करता है।
निर्जरा के बारह भेदों में नौवां भेद है- वैयावृत्त्य । व्यावृत्तस्य शुभव्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्त्यम्- शुभ कार्य में संलग्न का भाव अथवा कर्म वैयावृत्त्य है। वैयापृत्य शब्द भी मिलता है। इसका अर्थ है सेवा करना, कार्य में व्याप्त होना।