सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन का उपयोग अधमता में न हो : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन का उपयोग अधमता में न हो : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आर्हत् वाणी की वर्षा कराते हुए फरमाया कि मनुष्य जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। चौरासी लाख जीव योनियों में एक दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ जीवन मनुष्य का जन्म होता है। सर्वश्रेष्ठ होने का कारण यह है कि आध्यात्मिक उत्कृष्ट भूमिका पर केवल संज्ञी मनुष्य ही पहुंच सकता है। गुणस्थान अध्यात्म की उत्कृष्ट भूमिका है। चौदहवां गुणस्थान गर्भज मनुष्य में ही हो सकता है। पंचम गुणस्थान के बाद के सारे गुणस्थानों की भूमिकाएं केवल गर्भज मनुष्य-मनुष्यणी में ही हो सकती हैं।
पंचम गुणस्थान गर्भज मनुष्यों और गर्भज तिर्यन्चों दोनों में हो सकता है। चतुर्थ गुणस्थान तो चारों गतियों में उपलब्ध हो सकता है। तात्विक आधार पर बारहवें गुणस्थान तक मनुष्य संज्ञी रहता है। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में वह संज्ञी न कहलाकर, नो संज्ञी-नो असंज्ञी की परिस्थिति वाला कहला सकता है।
संज्ञीत्व-असंज्ञीत्व का सम्बन्ध कर्म के उदय और विलय के साथ है। संज्ञीत्व क्षयोपशम भाव से सम्बन्धित है और असंज्ञीत्व उदय भाव से सम्बन्धित है। केवलज्ञान होने के बाद चारों ही घाती कर्मों का उदय या क्षमोपशम नहीं रहता, क्षायिक भाव आ जाता है। इसलिए मनुष्य जीवन सर्वश्रेष्ठ है।
इस सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन का उपयोग व्यक्ति श्रेष्ठता में करता है या अधमता में, यह अलग बात है। चिन्तन का विषय यह है कि इस श्रेष्ठ मानव जीवन का उपयोग हम अधम रूप में न करें। मनुष्य मर कर सातवीं नरक में जा सकता है। प्रयास यह रहे की इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग न हो तो अधमता में भी उपयोग न हो। जितना बढ़िया उपयोग कर सके, करने का प्रयास करना चाहिए।
छठे-सातवें गुणस्थान तक पहुंच जाए तो भी बढ़िया उपयोग है। अगर साधु न बन सके तो पांचवे गुणस्थान, श्रावकत्व की साधना की जा सकती है। पांचवें गुणस्थान वाले भी साधक हैं, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व युक्त देशव्रत है। चार तीर्थ में जहां साधु-साध्वी हैं, वहां श्रावक-श्राविका भी है। श्रावक-श्राविकाओं में सम्यक्त्व पुष्ट रहे, जीवन में त्याग-तपस्या रहे।
सूरत में आये हैं, चतुर्मास लगने वाला है। चतुर्मास में ज्ञान, दर्शन, तप आराधना का क्रम चलता रहे। तपस्या में थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ता आदमी काफी आगे बढ़ सकता है। प्रयास करने से कई कदमों तक आगे बढ़ा जा सकता है। निमित्त और मौका मिलने से कार्य में सफलता मिल सकती है। इस प्रवास में जितना हो सके धार्मिक-
आध्यात्मिक उत्थान का प्रयास हो। तपस्या भी उत्थान का एक अंग है। ज्ञानाराधना भी महत्वपूर्ण है, इससे ज्ञान-जानकारियां मिल सकती है।
पूज्यवर के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष महेन्द्र बैद ने अपने उद्गार व्यक्त किए। तेरापंथ किशोर मंडल, उधना ज्ञानशाला, तेरापंथ कन्या मंडल आदि ने अपनी भाव भरी प्रस्तुति दी। उधना महिला मंडल एवं कन्या मंडल तथा तेयुप सदस्यों ने गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।