धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

आगमों में वैयावृत्त्य के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं-
१. आचार्य का वैयावृत्त्य
२. उपाध्याय का वैयावृत्त्य
३. स्थविर का वैयावृत्त्य
४. तपस्वी का वैयावृत्त्य
५. ग्लान का वैयावृत्त्य
६. शैक्ष (नवदीक्षित) का वैयावृत्त्य
७. कुल का वैयावृत्त्य
८. गण का वैयावृत्त्य
९. संघ साधुओं (साधुओं के समूह विशेष) का वैयावृत्य
१०. साधर्मिक का वैयावृत्त्य।
वैयावृत्य करने के चार कारण विज्ञप्त हैं-
१. समाधि पैदा करना।
२. विचिकित्सा दूर करना, ग्लानि का निवारण करना।
३. प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना।
४. सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना।
आचार्य आदि वैयावृत्य के दस स्थान या पात्र हैं। उनकी सेवा किस प्रकार की जानी चाहिए, इसका दिशानिर्देश तेरह कार्यों के माध्यम से किया गया है। वे इस प्रकार हैं-
१. भोजन लाकर देना।
२. पानी लाकर देना।
३. शय्या अथवा संस्तारक देना।
४. आसन देना।
५. क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना।
६. पादप्रमार्जन करना अथवा औषधि पिलाना।
७. आंख का रोग उत्पन्न होने पर औषधि लाकर देना।
८. मार्ग में विहार करते समय उनका भार लेना तथा मर्दन आदि करना।
९. राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना।
१०. शरीर को हानि पहुंचाने वाले, यथा-उपाधि को चुराने वालों से संरक्षण करना।
११. बाहर से आने पर दंड (यष्टि) ग्रहण कर रखना।
१२. ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना।
१३. उच्चारपात्र, प्रश्रवणपात्र और श्लेष्मपात्र की व्यवस्था करना।
वैयावृत्त्य के दस स्थानों में तीर्थंकर के वैयावृत्य का कोई अलग से उल्लेख नहीं है। आचार्य में तीर्थंकर भी समाविष्ट हो जाते हैं। आचार्य का अर्थ है- स्वयं आचार का पालन करने वाला तथा दूसरों से उसका पालन कराने वाला। इस दृष्टि से तीर्थंकर स्वयं आचार्य होते हैं।