श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

और भी न जाने कितने बवंडर आए और अपनी गति से चले गए। भगवान् के ध्यान का कवच इतना सुदृढ़ था कि वे उसे भेद नहीं पाए। यह नवनीत इतना गाढ़ा था कि कोई भी आंच उसे पिघाल नहीं पाई। सारे बादल फट गए। आकाश निरभ्र हो गया और सूरज अपनी असंख्य रश्मियों को लिए हुए विजय की लालिमा से फिर प्रदीप्त हो उठा।
भूख-विजय
भगवान् महावीर दीर्घ तपस्वी कहलाते हैं। उन्होंने बड़ी-बड़ी तपस्याएं की हैं। उनका साधना-काल साढ़े बारह वर्ष और एक पक्ष का है। इस अवधि में उनकी उपवास-तालिका यह है-
• दो दिन का उपवास - बारह बार।
• तीन दिन का उपवास - दो सौ उन्नीस बार ।
• पाक्षिक उपवास - बहत्तर बार।
• एक मास का उपवास - बारह बार।
• डेढ़ मास का उपवास - दो बार।
• दो मास का उपवास - छह बार।
• ढाई मास का उपवास - दो बार।
• तीन मास का उपवास - दो बार।
• चार मास का उपवास - नौ बार।
• पांच मास का उपवास - एक बार।
• पांच मास पचीस दिन का उपवास - एक बार ।
• छह मास का उपवास - एक बार।
• भद्रप्रतिमा-दो उपवास - एक बार ।
महाभद्रप्रतिमा-चार उपवास - एक बार।
• सर्वतोभद्रप्रतिमा-दस उपवास - एक बार।
भगवान् ने साधनाकाल में सिर्फ तीन सौ पचास दिन भोजन किया। निरन्तर भोजन कभी नहीं किया। उपवास काल में जल कभी नहीं पिया। उनकी कोई भी तपस्या दो उपवास से कम नहीं थी।
भगवान् की साधना के दो अंग हैं-उपवास और ध्यान। हमने भगवान् की उस मूर्ति का निर्माण किया है, जिसने उपवास किए थे। जिसने ध्यान किया था, उस मूर्ति के निर्माण में हमने उपेक्षा बरती है। इसीलिए जनता के मन, में भगवान् का दीर्घ-तपस्वी रूप अंकित है। उनकी ध्यान-समाधि से वह परिचित नहीं है।
'भगवान् इतने ध्यान-लीन थे, फिर लम्बे उपवास किसलिए किए?'
'उन दिनों दो धाराएं चल रही थीं। कुछ दार्शनिक शरीर और चैतन्य में अभेद प्रस्थापित कर रहे थे। कुछ दार्शनिक उनमें भेद की प्रस्थापना कर रहे थे। महावीर भेद के सिद्धांत को स्वीकार कर उसके प्रयोग में लगे हुए थे। वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि शरीर की तुलना में सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर की तुलना में मन और मन की तुलना में आत्मा की शक्ति असीम है। उनकी लम्बी तपस्या उस प्रयोग की एक धारा थी। यह माना जाता है कि मनुष्य पर्याप्त भोजन किए बिना, जल पिए बिना बहुत नहीं जी सकता और श्वास लिये बिना तो जी ही नहीं सकता। किन्तु भगवान् ने छह मास तक भोजन और जल को छोड़कर यह प्रमाणित कर दिया कि आत्मा का सान्निध्य प्राप्त होने पर स्थूल शरीर की अपेक्षाएं बहुत कम हो जाती हैं। जीवन में नींद, भूख, प्यास और श्वास का स्थान गौण हो जाता है।'