मोक्ष मार्ग का द्वार है मनुष्य जीवन : आचार्यश्री महाश्रमण
आयारो आगम का प्रतिबोध प्रदान कराते हुए अध्यात्म ऊर्जा के भंडार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि जैन दर्शन में आत्मवाद का सिद्धान्त है। आत्मा अलग है, शरीर अलग है। एक विचारधारा यह भी रही है कि आत्मा और शरीर एक ही है। उपांग आगम रायपसेणियम् में इसका विस्तार मिलता है। कुमार श्रमण केशी और राजा प्रदेशी का आपस में संवाद हुआ। वह आस्तिकवाद और नास्तिकवाद का प्रसंग है। कुमार श्रमण आस्तिकवाद के प्रवक्ता और राजा प्रदेशी नास्तिकवाद का अनुयायी।
जैनदर्शन में आत्मा को शाश्वत माना गया है। आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न माना गया है। कोई भी शस्त्र आत्मा का छेदन-भेदन नहीं कर सकता। आत्मा तो अछेद्य, अदाह्य, अशोष्य है। हर प्राणी में आत्मा है। प्रश्न हो सकता है कि आत्माएं कभी तो पैदा हुई होगी। पर ऐसी बात नहीं है। आत्मा तो अनादिकाल से है। आयारो के प्रथम अध्ययन में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की बात आ गई है। दोनों का संबंध आत्मा का संबंध है। कईयों को पता चलता है कि आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। सोऽहं-सोऽहं - वो मैं हूं। कई मनुष्यों को पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है, पर पुनर्जन्म का ज्ञान नहीं होता। किसी को ज्ञान हो भी जाए, पर साधारणतया पूर्वजन्म याद नहीं रहता।
पूर्वजन्म की स्मृति तीन प्रकार से हो सकती है-स्वस्मृति, तीर्थंकर भगवान से जानकारी और केवलज्ञानी से सुनकर भी जानकारी। पूर्वजन्म के ज्ञान से व्यक्ति की असद् प्रवृत्ति से निवृत्ति और सद् में प्रवृत्ति हो सकती है। शरीर और आत्मा अलग है, इस पर श्रद्धा हो सकती है। जातिस्मृति ज्ञान का धारक पूर्व भवों को जान-देख सकता है, पर असंज्ञी के भवों को नहीं जान सकता, केवल संज्ञी के भव ही जान सकता हैं। हमें पिछला जन्म नहीं दिखता है, यदि संदेह की स्थिति है कि पूर्वजन्म या पुनर्जन्म है या नहीं। इसका मार्गदर्शन दिया गया है- तुम बुरे काम मत करो, जितना हो सके अच्छे काम करो। मान लो पुनर्जन्म नहीं है, पर अच्छे काम किए तो यह जीवन शांति से बीतेगा। अगर पुनर्जन्म है तो अच्छे काम करने से आगे भी सुगति मिलेगी। दोनों में नुकसान नहीं है। बुरे काम करोगे तो यह भव तो बिगड़ेगा ही, आगे का भव भी बिगड़ सकता है, दुर्गति हो सकती है। इसलिए मनुष्य को अहिंसा, नैतिकता और आध्यात्मिकता का जीवन जीना चाहिए। मनुष्य जीवन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुष्य ही मोक्ष में जा सकता है। अभवी जीव नौ ग्रेवैयक देवलोक
तक चला जाये पर मोक्ष में नहीं जा सकता। अनुत्तरवासी देवताओं को मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य जीवन लेना होता है। मनुष्य जीवन मोक्ष मार्ग का द्वार है। इसका हम अच्छा धार्मिक-आध्यात्मिक लाभ उठावें। तपस्या में भी आगे कदम बढ़ायें। चतुर्मास का मौका है, मौके पर कई काम हो सकते हैं। जितना हो सके तपस्या में आगे बढ़ें। ज्ञानाराधना भी चलता रहे। बुरे कार्यों से बचें तो हमारी आत्मा विशुद्धि की ओर आगे बढ़ सकती है। आचार्य प्रवर के मंगल प्रवचन के उपरांत साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हम सबका चिन्तन है कि हमें मुक्ति प्राप्त करनी है, जैन दर्शन में तीन योग- मनोयोग, वचन योग और काय योग बताये गए हैं, जिनसे हम प्रवृत्ति करते हैं। मन के तीन कार्य है चिन्तन, स्मृति और कल्पना। जो व्यक्ति सकारात्मक होते हैं, वे प्रगति करते हैं। नकारात्मक सोच वाला पतन को प्राप्त हो सकता है। सकारात्मक सोच वाले गुणों को देखते हैं। वे अभाव में भी स्वभाव का दर्शन करते हैं। हमें सफलता प्राप्त करनी है, तो जो है, उसमें खुश रहना है। परम पूज्यवर तो सकारात्मकता के स्रोत हैं, जिससे आपकी आध्यात्मिक ऊर्जा बढ़ती रहती है। चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के पदाधिकारियों द्वारा आचार्यश्री के समक्ष पावस प्रवास व फड़द का लोकार्पण किया गया। चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा संयम सारथि एप्लीकेशन को भी प्रस्तुत किया गया। तेरापंथ किशोर मण्डल-सूरत ने गीत की प्रस्तुति दी। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के बैनर को अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी द्वारा आचार्यश्री के समक्ष अनावरित किया गया। आचार्यश्री भिक्षु समाधि स्थल संस्थान के पदाधिकारीगण ने भिक्षु चरमोत्सव के बैनर को लोकार्पित किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।