स्वयं अभय रहते हुए दूसरों को अभयदान देने का प्रयास करें : आचार्यश्री महाश्रमण
शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी ने सम्पूर्ण श्रावक समाज को प्रेरणा देते हुए फरमाया कि चातुर्मास के अंतर्गत विभिन्न सम्मेलनों का आयोजन होता है उसमें से एक है- 'बेटी तेरापंथ की'। तेरापंथ धर्म संघ की सर्वोच्च संस्था 'संस्था शिरोमणि' तेरापंथी महासभा द्वारा आयोजित 'बेटी तेरापंथ की' का यह द्वितीय वर्ष है, इससे पहले इसका आयोजन मुंबई चातुर्मास में हुआ था। इस वर्ष इस सम्मेलन के अंतर्गत देश-विदेश से बेटियों और दामादों का आना हुआ है और लगभग 1500 के करीब इनका रजिस्ट्रेशन हुआ है। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य स्नेह, संस्कार और समन्वय है।
आचार्यप्रवर ने फरमाया कि सम्मेलन का नाम 'बेटी तेरापंथ की' है लेकिन इसके साथ एक गर्भित बात है- 'दामाद तेरापंथ के'। प्रायः 4000 से अधिक बेटियां इस कार्यक्रम से जुड़ चुकी हैं। गुरुदेव ने मंगल उद्बोधन में कहा कि बेटियों के साथ दामाद, नाती, नातिन का जुड़ाव भी इस सम्मेलन से हुआ है। यह धार्मिक संदर्भ से जुड़ा हुआ कार्यक्रम है। जिन बेटियों ने तेरापंथ धर्म संघ के अंतर्गत जन्म लिया और जिनका विवाह अन्य संप्रदाय में हुआ है, वे इसके अंतर्गत आते हैं। सम्मेलन में समागत बेटियों और दामादों को आशीर्वचन देते हुए पूज्य प्रवर ने कहा कि सभी में आध्यात्मिक सुख शांति का भाव बना रहे और जहां पर भी रहें धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्य करते रहें। सब में मैत्री भाव बना रहे, नशा मुक्ति रखें और आगे पर्युषण पर्व आ रहा है उसका लाभ लेने का प्रयास करें।
इससे पूर्व मंगल प्रवचन में जन-जन का उद्धार करने वाले युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने महावीर समवसरण में फरमाया कि सामान्यतया मनुष्य में अभय रहने की भावना रहती है। प्रश्न हो सकता है कि मनुष्य को भय किससे लगता है? आयारो आगम में उत्तर मिलता है कि मनुष्य के भय का मूल कारण दुःख है। कोई भी मनुष्य स्वयं के लिए कष्ट नहीं चाहता, मनुष्य मुख्य रूप से दुःख से डरता है। वह बीमारी, अपमान, डकैती, चोरी और अपने जीवन की रक्षा को लेकर डर सकता है। आगम में लिखा गया है कि सभी सांसारिक जीवों को अभय की कामना होती है। इसके लिए मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि वह ना किसी से डरे और ना किसी को डराए।
अभय में तारतम्य हो सकता है। अर्हत् तो पूर्णतया अभय होते हैं, अभय दाता होते हैं। दुनिया में वह आदमी बड़ा सुखी होता है जिसने भय को जीत लिया। वह परम सुखी हो सकता है। जो दूसरों को डराता है वह पाप कर्म - असात वेदनीय का बंध कर सकता है। हम किसी को डराने का, दुःखित करने का प्रयास न करें। मनुष्य अपने आप में मनोबल, समता और शांति का भाव रखे, चाहे उसके जीवन में कितनी भी विषम परिस्थितियां आ जाएं। आगम में कहा गया है कि दस दानों में अभय दान सर्वश्रेष्ठ दान है, उत्कृष्ट दान है।
भय को दो प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है प्रशस्त व अप्रशस्त, सात्विक व असात्विक। हम प्रशस्त अभय की परिपालना करें। जिस तरह सब अस्तिकाय हमारे सहयोगी होते हैं और जीव भी एक दूसरे का सहयोग करते हैं उसी तरह मनुष्य ना किसी से डरे और ना किसी को डराए, सब मिलजुल कर रहें। जहां पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक समूह हैं, वहां एक-दूसरे को सेवा देते हैं। सेवाकेन्द्रों में चाकरी सेवा दी जाती है।
निश्चय नय का विचार है- मैं अकेला हूं, अकेला आया हूं। मेरे हर कर्म मुझे अकेले को ही भोगने पड़ते हैं। व्यवहार में दूसरे की सहायता-सेवा कर सकते हैं। हम दूसरों को भयभीत न करें। छोटे प्राणियों के प्रति हमारा अहिंसा का भाव रहे। जैसे को तैसा वाली नीति न हो, ईंट का जवाब कोमल फूलों से दें। भला करे या न करें पर किसी का बुरा न करें। पूज्यवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाये। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि जीवन के दो चरम छोर हैं- लघुता और प्रभुता। आत्मा की प्रभुता को प्राप्त कर व्यक्ति अपनी आत्मिक शक्ति को जगाने का प्रयास करता है। दस धर्मों में एक धर्म है- लाघव धर्म। लघुता यानी हल्कापन। लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर। लघुता के बिना हम मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। 'बेटी तेरापंथ की’ के सम्मेलन के संदर्भ में मुनि कुमारश्रमणजी एवं मुनि विश्रुतकुमारजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। कन्या मंडल व किशोर मंडल ने चौबीसी के गीत की प्रस्तुति दी। कच्छ-भुज की बेटियों ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।