अहिंसा की साधना के लिए जानें जीव और अजीव को : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अहिंसा की साधना के लिए जानें जीव और अजीव को : आचार्यश्री महाश्रमण

ज्ञान चेतना को विकसित करने वाले युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के प्रथम अध्ययन की अमीवर्षा कराते हुए फरमाया- अहिंसा की साधना के लिए यह भी जानना अपेक्षित है कि जीव कौन है, अजीव कौन है? जब तक यह पता नहीं है तो जीवों के प्रति अहिंसापूर्ण व्यवहार कितना और कैसे हो सकता है? जैन वांग्मय में षट् जीव निकाय का उल्लेख मिलता है। इन छः जीव निकायों को जान लिया जाता है, तो व्यक्ति हिंसा से बच सकता है। जीव दो प्रकार के हैं- एक वे जीव जिनका सुबोध प्रत्यक्ष जाना जा सकता है, दूसरे वे जिनका बोध प्रत्यक्ष जाना नहीं जा सकता। स्थावर काय के जीवों को प्रत्यक्ष जान लेना कठिन है। वनस्पति काय को थोड़ा जाना जा सकता है। पृथ्वी, हवा, पानी, अग्नि सजीव है पर वह प्रत्यक्ष नहीं है।
जिनको हम प्रत्यक्ष रूप में जीव नहीं जान सकते तो हम आगम की वाणी को मान लें। इनकी हिंसा से हम बचें, इनकी अहिंसा के प्रति जागरूक रहें। थोड़े से पानी में असंख्य जीव हो सकते हैं। अप्काय के जीव दिखाई नहीं दे सकते। सचित्त पानी तो स्वयं जीव है। पानी में जो दिखते हैं, वे तो त्रसकाय के जीव या पुद्गल हो सकते हैं।इन छोटे स्थावर जीवों को भी अभय बना दें। साधु से भी अप्काय की द्रव्य हिंसा हो सकती है। जीवन चलाने में द्रव्य हिंसा से भी बचने का प्रयास करें। उपासक भी पानी का संयम कर सकते हैं। गृहस्थ भी लक्ष्य रखे तो थोड़े पानी में अच्छी सफाई हो सकती है। पानी का अनावश्यक प्रयोग न हो। जीवों को अभय बनाने का प्रयास करें। ऊपरला व्याख्यान के अंतर्गत पूज्य प्रवर ने ‘नीति रो प्यालो’ आख्यान का विवेचन किया।
मुनि मेधावीकुमारजी ने पूज्य प्रवर से 15 की तपस्या के प्रत्याख्यान किए। अनेकों श्रावक श्राविकाओं ने अठाई, 13, 15 आदि तपस्या के प्रत्याख्यान किये। जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में उपासक प्रशिक्षण शिविर के मंचीय कार्यक्रम में जयंतिलाल सुराणा ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। शिविरार्थी दीक्षित बाफणा ने शिविर के अनुभवों की प्रस्तुति दी। महासभा के महामंत्री विनोद बैद ने अपने विचार व्यक्त किए एवं उपासक श्रेणी परिचय व प्रतिवेदन पुस्तिका 2023 पूज्यवर को समर्पित की गई।
पूज्यवर ने आशीर्वचन फरमाते हुए कहा कि उपासक श्रेणी और शिविर का प्रसंग है। परम पूज्य गुरुदेव तुलसी के आचार्य काल में कई नये उन्मेष व गतिविधियां सामने आई थी। यह उपासक संघ या उपासक श्रेणी उन्हीं में से एक है। प्रारम्भ में तो उपासक श्रेणी छोटा-सा था, वह बढ़ते-बढ़ते विस्तार को प्राप्त हुआ है। केवल संख्या का ही नहीं मानों मैनेजमेंट का भी परिष्कार-विस्तार हुआ है। अब तो शिविर का भी परिष्कृत रूप हो गया है। गुणवत्ता भी महत्वपूर्ण बात होती है। वर्ष में जितना समय मिले, जितनी अनुकूलता हो, व्यक्तिगत विकास होता रहे। शिविर में भी विकास हो सकता है। गंगाशहर व लाडनूं में जैन विश्व भारती में भवन की संभवतः बात है, वहां पर भी ट्रेनिंग का क्रम चलता रहे। स्वाध्याय-अध्ययन का सघन क्रम चलता रहे। भाषण की ट्रेनिंग मिले, राग-रागिनियों को भी धराया जा सकता है।
ट्रेनिंग होती रहे, साथ में साधना भी चलती रहे। जहां संथारे होते हैं, वहां पर उपासक सहयोग करा सकते हैं। उपासक पर्युषण में तो जाते ही हैं। स्थानीय स्तर पर भी शेषकाल में भवनों में व्याख्यान चलता रहे। शनिवार की सामायिक करायी जा सकती है। धार्मिक-आध्यात्मिक सेवा देते रहें। अपना खुद का विकास करते रहें। कई निवृत्त होते हैं तो संख्या में कई प्रवृत्त भी हों। जैसे जितने जीव मोक्ष में चले जाते हैं, उतने जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जाते हैं। प्रेरणा देने से लोगों को उपासक श्रेणी की तरफ आकर्षित करने का प्रयास किया जा सकता है। जीवनदानी-समयदानी उपासक बनें। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।