हिंसा के तीन कारण अभाव, आवेश और अज्ञान : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म चेतना के युगपुरुष आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम वाणी का रसास्वाद कराते हुए फरमाया कि आयारो आगम के प्रथम अध्ययन में कहा गया है- आदमी अपराध में चला जाता है, हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। हिंसा दो प्रकार की होती है- आरम्भजा और संकल्पजा। जीवन चलाने के लिए जो हिंसा की जाती है, वह आवश्यक कार्य है, उससे आदमी का बच पाना मुश्किल है, यह आरम्भजा हिंसा हो जाती है। साधु की अहिंसा तो उच्चकोटि की, महाव्रत की अहिंसा होती है। साधु के शरीर से कुछ-कुछ हिंसा हो सकती है, पर साधु मन-वचन से हिंसा नहीं करता है। पर वह हिंसा उसके लिए मान्य है। यह आवश्यक कोटि की हिंसा हो जाती है।
संकल्पजा हिंसा में प्रवृत्त होने वाला आर्त्त, दुःखी आदमी है, तभी वह हिंसा में जाता है। पदार्थ पास में नहीं है, भूखमरी, गरीबी है, अभावग्रस्त है, तब वह हिंसा में जा सकता है। अभाव हिंसा का निमित्त बन सकता है। अनाथ आश्रम में जो बच्चे रखे जाते हैं, उसका मूल उद्देश्य यही है कि अभावग्रस्त ये बच्चे हिंसा में न चले जाएं। आवेश-कषाय के कारण भी व्यक्ति हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है। तीसरा कारण बताया है कि ऐसे लोग हैं जिनको समझाना मुश्किल है, वे अहिंसा धर्म से अनजान है, वे अज्ञानी हैं। अज्ञान के कारण व्यक्ति हिंसा और अपराध में जा सकता है। कोई भी अपराध या भूल का एक कारण अज्ञान होता है। श्रावक संदेशिका का उद्देश्य यही है कि श्रावकों को नियमों की जानकारी हो, हमारी विधि की जानकारी हो ताकि श्रावक भूल नहीं करें। व्यवस्था को अच्छा रखने के लिए नियम बनाने होते हैं, वे नियम भी लिखित रूप में हो ताकि प्रमाण को बताया जा सके।
ज्ञान होने पर जमीकन्द का चतुर्मास में त्याग किया जा सकता है। ज्ञान देने वाला चाहिये तो ज्ञान लेने वाला भी चाहिये। ज्ञान से आदमी बुराईयों में जाने से बच सकता है। प्रवचन से भी ज्ञान मिल सकता है। इस प्रकार हिंसा के तीन कारण हो गए- अभाव, आवेश और अज्ञान। पाप करोगे तो फल भोगना पड़ेगा, इसका ज्ञान हो जाये। हिंसा के कारणों को निरावृत्त किया जाये तो व्यक्ति पाप से बच सकता है।
'रूप रो गर्व' आख्यान के वाचन के अंतर्गत आचार्य प्रवर ने फरमाया कि से रूप के कारण चक्रवर्ती सनत्कुमार अहंकारित हो गया। बाद में रूप विकृत हुआ तो उसे वैराग्य भी आ गया। उनसे चिंतन किया कि यह शरीर क्षणभंगुर है, अब तो आत्मा को सुन्दर बनाना है। इस लिए संयम स्वीकार करना है। चक्रवर्तीत्व, नव निधि, चौदह रत्न सबको त्याग चक्रवर्ती सनत्कुमार मुनि सनत्कुमार बन गए। आगे बढ़ गये, मोह-ममता को छोड़ दिया, साधना में लग गये। अब उनका चिंतन चला कि शरीर का शोषण करना है, आत्मा का पोषण करना है। त्याग-तपस्या करते करते 16 रोगों से अतिक्रांत मुनि समता से उसे सहन करते हैं। मानो साधना से वेदना को भी पीड़ित कर दिया। देवलोक में फिर चक्रवर्ती सनत्कुमार की समता की प्रशंसा हुई। देवता वैद्य बनकर परीक्षा लेने उपस्थित होते हैं और मुनि को चिकित्सा का निवेदन करते हैं। मंगल प्रवचन के पश्चात पूज्यवर ने तपस्वियों को प्रत्याख्यान करवाए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।