अनावश्यक हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सूरत। 30 जुलाई, 2024

अनावश्यक हिंसा से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

अध्यात्म साधना के सुमेरू आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आर्हत् वाणी का रसपान कराते हुए फरमाया कि आयारो आगम के प्रथम अध्ययन में कहा गया है- आदमी हिंसा में प्रवृत्त हो छः जीव निकायों की हिंसा में चला जाता है। विभिन्न प्रसंगों में जीव की हिंसा हो सकती है। कभी मनोरंजन के लिए भी जीवों को कष्ट पहुंचाया जाता है। आदमी शस्त्र छोड़े और अशस्त्र की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करे। जो हिंसा जरूरी न हो, उससे बचने का प्रयास करना चाहिए। आवश्यक हिंसा तो करनी पड़ सकती है। साधुओं के द्वारा प्रतिबोध मिलता है, तो कितने लोग हिंसा को छोड़ अहिंसा के मार्ग पर बढ़ सकते हैं। हिंसा दो प्रकार की होती है- द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। द्रव्य हिंसा में साधु के पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता है। सामान्य आदमी जीव हिंसा से बचने का प्रयास करे। आसक्ति से भी व्यक्ति हिंसा में चला जाता है। लोभ के कारण, आक्रोश के कारण भी आदमी हिंसा में जा सकता है। भावों से आतुर बने लोग प्राणियों को कष्ट में डाल देते हैं।
चतुर्मास के समय में कितने लोग खाद्य संयम, तपस्या करते हैं। साधु का जीवन तो अहिंसामय होना ही चाहिए। गृहस्थ भी कहीं रहे यह चिन्तन रहे कि मैं हिंसा से बचकर रह सकूं। आदमी के कषाय मंद पड़े, ऐसा प्रयास हो। आदमी के जीवन में ज्यादा से ज्यादा अहिंसा रहे, यह काम्य है। साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने फरमाया कि हमारा लक्ष्य है वीतराग बनना, अर्हत् की स्थिति को प्राप्त करना। इसके लिए हमें चित्त को निर्मल बनाना होगा, साधना करनी होगी। भीतर के मल को दूर करने के लिए ध्यान का अभ्यास करना होगा। इससे व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्ति की ओर आगे बढ़ सकता है। प्रेक्षाध्यान करने वाले का दृष्टिकोण साफ हो जाता है कि मुझे मेरे मन को साफ करना है। ध्यान के अभ्यास से एकाग्रता बढ़ जाती है। चंचल मन साधना में अवरोधक बनता है। स्थिर मन से साधक ध्यान में प्रवेश कर लेता है।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने कहा कि पारस मणि से लोह पिंड सोना बन जाता है। ज्ञानी-विद्वत जनों ने सम्यक्त्व को पारस मणि बताया है। इससे आदमी की चमक बढ़ जाती है, आत्मा ज्ञान को प्राप्त करने लग जाती है। सम्यक्त्व निरंतर टिका रहे इसके लिए चतुर्विंशति स्तव की स्तुति करनी चाहिये। चतुर्विंशिति स्तव की स्तुति से दर्शन की विशुद्धि होती है। श्रद्धा सही और मजबूत हो जाती है। वीतराग बनने की प्रेरणा जागृत हो जाती है, पर इसके लिए जरूरी है कि शब्द के साथ उसका अर्थ का ज्ञान जरूरी है। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।