धर्म है उत्कृष्ट मंगल
'कई आचार्य वयोवृद्ध होते हुए भी स्वभाव से ही मन्द (अल्पप्रज्ञ) होते हैं और कई अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं। आचारवान् और गुणों में सुस्थितात्मा आचार्य, भले फिर वे मंद हों या प्राज्ञ, अवज्ञा प्राप्त होने पर अवज्ञा करने वाले की गुणराशि को उसी प्रकार भस्म कर डालते हैं जिस प्रकार अग्नि ईंधन राशि को।'
यहां आचार अथवा चरित्र की महत्ता स्पष्ट परिलक्षित होती है, ज्ञान की यहां
मुख्यता नहीं है। जो व्यक्ति चरित्रसम्पन्न और गुणसम्पन्न है, फिर चाहे वह विभिन्न विषयों का विद्वान् न भी हो, उसका कल्याण हो सकता है। और दूसरा एक व्यक्ति जो बौद्धिक, विद्वान्, कवि और वक्ता है परन्तु आचारसम्पन्न नहीं है, वह संसार में परिव्रजन करता है।
पंडित के मन में प्रश्न उठा कि राजा मेरा इतना सम्मान करता है, मुझे प्रणाम करता है, उसका कारण मेरी विद्वत्ता है अथवा मेरा आचार? इसकी जांच करने के लिए उसने एक दिन राजमहल में चोरी की। सप्रमाण राजा के पास शिकायत पहुंच गई। दूसरे दिन पण्डित राजसभा में गया तो राजा ने बिलकुल सम्मान नहीं किया। पंडित के द्वारा पूछे जाने पर राजा ने कहा- पंडितजी! आप सम्मान के लायक हैं भी तो? ऐसा जघन्य काम आप करते हैं! पण्डित समझ गया कि सम्मान मेरी विद्या से ज्यादा आचार का हो रहा था। विद्या तो आज भी है पर चरित्र के अभाव के कारण सम्मान अपमान में बदल गया।
इस संदर्भ में यह स्पष्ट लगता है कि चरित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का स्थान दूसरा। निष्कर्ष यह है कि जो ज्ञान चरित्र का विकास करने वाला है उसका स्थान पहला है। जो ज्ञान चरित्र से सीधा संबंधित नहीं है उसका स्थान चरित्र के बाद में है। निर्जरा के बारह भेदों में दसवां है स्वाध्याय। उसके गौरव का गान करने वाला एक श्लोक मननीय है-
बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे।
नय अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं।।
'कुशल द्वारा उपदिष्ट बाह्य और आभ्यन्तर भेद वाला बारह प्रकार का तप है। उसमें स्वाध्याय के समान न तो कोई तप है और न ही होगा।' स्वाध्याय का इतना महत्त्व क्यों? इसका एक कारण मुझे यह लगता है कि स्वाध्याय प्रकाशकर है। उससे वह रोशनी मिलती है जो करणीय और अकरणीय का स्पष्ट ज्ञान करा देती है, साधना के मार्ग को प्रशस्त कर देती है। स्वाध्याय श्रुत की परम्परा को अविच्छिन्न बनाए रखता है। उसमें स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ तीनों का समावेश देखने को मिलता है जो कि मेरे ख्याल में निर्जरा के अन्य ग्यारह भेदों में से किसी में भी नहीं है। स्वाध्याय परमार्थ इसलिए है कि उससे परम की प्राप्ति होती है, कर्म निर्जरा होती है। स्वार्थ (स्वयं के लिए, अपने लिए) इसलिए है कि उससे अपना ज्ञान बढ़ता है। परार्थ (औरों के लिए) इसलिए है कि उससे दूसरों का ज्ञान भी बढ़ता है, और मार्गदर्शन भी होता है। श्रुत ज्ञान को स्वार्थ और परार्थ दोनों माना गया है जबकि शेष चार ज्ञान केवल स्वार्थ माने गए हैं। स्वाध्याय और श्रुतज्ञान में एकता देखी जा सकती है।
स्वाध्याय : एक विश्लेषण
दुनिया का हर प्राणी विकासप्रिय होता है। संभव है कुछ परिस्थितियों के कारण व्यक्ति विकास के सोपान पर आरूढ़ न भी हो सके पर उन्नति सभी की आकांक्षा का केन्द्र बनी रहती है। हमारे जीवन विकास का एक अमोघ साधन है- स्वाध्याय।
स्वाध्याय के महत्त्व को इससे भी बल मिलता है कि उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि की प्राचीन अहोरात्रचर्या में चार प्रहर (दिन और रात के प्रथम और अंतिम प्रहर) स्वाध्याय के लिए रखे गए हैं जबकि ध्यान, भिक्षा व निद्रा इन तीनों को शेष अर्धभाग में समायोजित किया गया है।
जैन सिद्धान्त दीपिका में स्वाध्याय की परिभाषा दी गई है- श्रुतस्याध्ययनं स्वाध्यायः श्रुत (अध्यात्मशास्त्र) का अध्ययन स्वाध्याय है।
स्वाध्याय का स्वरूप
स्वाध्याय शब्द की तीन तरह से व्याख्या हो सकती है-
१ . सु + आ + अध्याय।
सु- अच्छा, आ समग्रता से,
अध्याय = अध्ययन।
अच्छे (आध्यात्मिक) ग्रन्थों का समग्रता से अध्ययन करना स्वाध्याय है।