श्रमण महावीर

स्वाध्याय

श्रमण महावीर

(पिछला शेष)
भगवान् की समत्व-साधना इतनी सुदृढ़ हो गई है कि अब उन्हें जैसा भी भोजन मिलता है, उसे समभाव से खा लेते हैं। उन्हें कभी सव्यंजन भोजन मिलता है और कभी निर्व्यजन। कभी ठंडा भोजन मिलता है और कभी गर्म। कभी पुराने कुल्माष बुक्कस और पुलाक जैसा नीरस भोजन मिलता है और कभी परमान्न जैसा सरस भोजन। पर इन दोनों प्रकारों में उनकी मानसिक समता विखंडित नहीं होती।
एक बार भगवान् ने रूक्ष भोजन का प्रयोग प्रारम्भ किया। इस प्रयोग
में वे सिर्फ तीन वस्तुएं खाते थे-कोदू का ओदन, बैर का चूरण और
कुल्माष। यह प्रयोग आठ महीने तक चला। भगवान् ने रसानुभूति का अधिकार रसना को दे दिया। मन उसके कार्य में हस्तक्षेप किया करता था। उसे अधिकार-मुक्त कर दिया।
ध्यान, आसन और मौन
मैं ध्यान-कोष्ठ में प्रवेश पा रहा था। स्थूल जगत् से मेरा सम्बन्ध विच्छिन्न हो चुका था। मेरा ध्येय था-महावीर की ध्यान-साधना का साक्षात्कार। सूक्ष्म-जगत् से संपर्क साधकर मैं आचार्य कुंदकुंद की सन्निधि में पहुंचा। मैंने जिज्ञासा की, 'महाप्रज्ञ। आपने लिखा है कि जो व्यक्ति आहार-विजय, निद्रा-विजय और आसन-विजय को नहीं जानता, वह महावीर को नहीं जानता, उनके धर्म को नहीं जानता। क्या महावीर के धर्म में ध्यान को कहीं अवकाश नहीं है?'
आचार्य ने सस्मित कहा, 'यदि ध्यान के लिए अवकाश न हो तो आहार, निद्रा और आसन की विजय किसलिए?'
'महाप्रज्ञ!' इसीलिए मेरी जिज्ञासा है कि आपने इनकी सूची में ध्यान को स्थान न देकर क्या उसका महत्त्व कम नहीं किया है?
'नहीं, मैं ध्यान का महत्त्व कम कैसे कर सकता हूं?'
'तो फिर उस सूची में ध्यान का उल्लेख क्यों नहीं?'
'वह ध्यान के साधनों की सूची है। आहार, निद्रा और आसन की विजय ध्यान के लिए है। फिर उसमें ध्यान का उल्लेख मैं कैसे करता?'
'क्या ध्यान साधन नहीं है?'
'वह साधन है। और आहार, निद्रा तथा आसन-विजय साधन का साधन है।' 'यह कैसे ?'
ध्यान आत्म-साक्षात्कार का साधन है। आहार, निद्रा और आसन का नियमन ध्यान का साधन है। भगवान् ने ध्यान की निर्बाध साधना के लिए ही नियमन किया था।'
'महाप्रज्ञ! आप अनुमति दें तो एक बात और पूछना चाहता हूं?' 'वह क्या?'
'आपने महावीर के ध्यान का अर्थ आत्मा को देखना किया है। क्या ध्यान का अर्थ सत्य का साक्षात्कार नहीं है?'
'आत्म-दर्शन और सत्य-दर्शन क्या भिन्न है?'
'महावीर ने चेतन और अचेतन-दो द्रव्यों का अस्तित्व प्रतिपादित किया है।
'सत्य-दर्शन में वे दोनों दुष्ट होते हैं। आत्म-दर्शन में केवल चेतन ही दृष्ट होता है। फिर दोनों भिन्न कैसे नहीं?'
'तुम मेरा आशय नहीं समझे। अचेतन का दर्शन उसी को होता है, जिसका चैतन्य अनावृत्त हो जाता है और चैतन्य का अनावरण मन को चैतन्य में विलीन करने से होता है। इसलिए मैंने महावीर के ध्यान का अर्थ-आत्मा को देखना, मन के उद्गम को देखना-किया है।'