भाई बहन के निर्मल प्रेम का प्रतीक है रक्षाबंधन

भाई बहन के निर्मल प्रेम का प्रतीक है रक्षाबंधन

वर्षभर में अनेक पर्व मनाए जाते हैं। प्रत्येक पर्व अपनी विशेषता लिए होता है। हमें हर पर्व की उपयोगिता को समझने का प्रयास करना चाहिए। पर्व मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं - आध्यात्मिक व लौकिक। आध्यात्मिक पर्व आत्मोन्नति का लक्ष्य लेकर मनाए जाते हैं, जैसे पर्युषण पर्व नितांत आध्यात्मिक पर्व है। इस पर्व पर तप, जप, सामायिक, मौन, खाद्य संयम, स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिंतन का क्रम रहता है, जिससे व्यक्ति आत्मविकास की दिशा में गतिमान बनता है। दूसरे पर्व जैसे अक्षय तृतीया, दीपावली भी जैन धर्म में जप, ध्यान आदि के साथ मनाए जाते हैं। अक्षय तृतीया पर वर्षीतप का पारणा‌, दीपावली पर्व पर तेला, पौषध, प्रतिक्रमण, भगवान महावीर का स्मरण, जाप आदि का क्रम रहता है। इसलिए ये पर्व भी आध्यात्मिक ऊंचाई लिए हुए हैं।
होली, रक्षाबंधन आदि पर्व भौतिक होते हुए भी अपनी महत्ता लिए हुए हैं। रक्षाबंधन पर्व भाई बहन के निर्मल प्यार का संबंध लिए हुए मनाया जाता है। यह पर्व हिंदू संस्कृति का प्रतीक कहलाता है। भाई बहन की अवस्था नहीं देखी जाती। शिशु, किशोर, युवा, प्रौढ़, वृद्ध किसी भी अवस्था के क्यों ना हो उनमें निर्मल आत्मीय संबंध रहे। आज यह पर्व कुछ विकृत हो रहा है। जो बहन भाई के हाथ में मौली बांधती थी, उसमें जो आनंद बढ़ता था वह आज की कीमती राखियों से कम प्रतीत हो रहा है। उस समय राखी पर भाई अपनी बहन को कुछ पैसे ही देता था परन्तु आज तो कुछ और ही हो गया है। सैकड़ों ही नहींं हजारों-लाखों की राखियां आने लगी हैं और बहन का ध्यान भी प्रेम की जगह पैसों पर रहता है। अगर सौ की राखी बांधे तो उससे ज्यादा ध्यान भाई से पैसे पाने पर रहता है। उस समय सबके एक समान मौली बांधी जाती थी परंतु आज मुंह देखकर राखी बांधी जाने लगी है। बहन देखती है यह भाई कितना देगा, यह भतीजा कितना देगा, उसी हिसाब से वह राखी बांधती है, जबकि इस पर्व का लक्ष्य था कि मैं मेरे भाई को इसलिए राखी बांधू कि मेरा भाई विपत्ति काल में मेरी रक्षा करे। इससे परिवार और समाज को भी यह प्रेरणा मिले कि भाई हो तो ऐसा हो कि अपनी बहन की समस्या को समझता ही नहीं बल्कि उसके निवारण में भी सहभागी बनता है। अर्थ परक नहीं भाई बहन दोनों कर्तव्य परायण बनेंगे तभी इस पर्व की गरिमा महिमा सुरक्षित रहेगी।