सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का प्रतीक पर्व -'रक्षाबंधन'

सत्यं, शिवं, सुन्दरम् का प्रतीक पर्व -'रक्षाबंधन'

पवित्र प्रेम स्नेह और सौहार्द भाव को बढ़ाने वाला पर्व है रक्षाबंधन। भारतीय परम्परा में अनेक पर्व हैं, जिसमें रक्षाबंधन का पर्व अपने आप में विशिष्ट कहलाता है। रक्षा शब्द विश्व इतिहास में महत्त्वपूर्ण रहा है। प्रत्येक व्यक्ति में सुरक्षा की भावना रहती है, इसीलिए इसे मानव जीवन के लिए प्राण, त्राण, आश्वास, विश्वास तथा सत्यं शिवं सुन्दरम् का प्रतीक माना गया है। जहाँ एक गृहस्थ व्यक्ति शरीर, सत्ता, सम्पदा, परिवार तथा संबन्धों की सुरक्षा पर ध्यान देता है तो एक आध्यात्मिक और धार्मिक जीवन जीने वाले के लिए आत्म सुरक्षा सर्वोपरि है। आज के इस भौतिकता की चकाचौंध में मानव धन को सुरक्षित रखने व बढ़ाने में अपनी शक्ति का उपयोग करता है। अथवा परिवार, सत्ता, सम्पदा की सुरक्षा करता है। जबकि बहुत कम लोग होते हैं जो धर्म व आत्मरक्षा का प्रयत्न करते हैं। अध्यात्म के मनीषियों ने कहा है - 'अप्पा खलु सययं रखियव्वो' - तुम संयम के द्वारा आत्मा को सुरक्षित रखो अथवा 'धर्मो रक्षति रक्षितः' - तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म भी तुम्हारी रक्षा करेगा। आज व्यक्ति धन की रक्षा के लिए तो न्याय नीति सबको गौण कर देता है। यह चिंतनीय प्रश्न है।
इतिहास साक्षी है कि व्यक्ति ने अपने राष्ट्र की सुरक्षा के लिए कितने संघर्ष किए है किन्तु रक्षा का मूल हार्द है- जीवन में प्रेम, दया, करुणा, अहिंसा, समन्वय, सहयोग की चेतना का जागरण हो जो कि कटु जीवन में मधुरता का संचार करे तथा सम्पूर्ण विश्व में भाईचारे को स्थापित करे। "वसुधैव कुटुम्बकम" सम्पूर्ण विश्व को परिवार की उपमा से उपमित करने वाला रक्षाबंधन का यह पर्व जैन और वैदिक दोनों परम्पराओं में समान रूप से महत्त्व रखता है। जन जीवन को नैतिकता, प्रामाणिकता और चरित्र निष्ठा का संदेश देने वाला यह पर्व आनंददायी व मंगलकारी है। इसके संबन्ध में प्राप्त कथानक विचारों की व्यापकता लिए हुए है।
लाखों-करोड़ों भारतवासी चाहे वे जैन, बौद्ध, सिख, सनातन तथा मुस्लिम धर्म में भी विश्वास करते है। उसमें भी यह पर्व पर भाई-बहनों के प्यार को दर्शाता है किन्तु शनैः शनैः पर्वों के साथ कुछ भावनाओं में विकृतियों का मनोभाव जुड़ने के कारण विश्वास का दायरा सिमट रहा है। जिस पिता, भाई अथवा अन्य संबन्धियों से बहन रक्षा की आशा करती रही है आज उससे भी अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लग गई है। आए दिन अखबारों में छपने वाली घटनाएं पढ़कर अथवा सुनकर ऐसा लगता है जीवन कहीं पर भी सुरक्षित नहीं है। आज का इंसान पर्व की पवित्र भावनाओं को भूलता जा रहा है, केवल लकीर के फकीर बनते जा रहे है। राखी के कच्चे धागे जो बहन द्वारा भाई की कलाई पर बांधे जा रहें हैं वह मात्र औपचारिक उपकरण बन रहा है। जहां भाई की सोच अच्छी व कीमती राखी पर अटक रही है तो बहन का ध्यान मात्र धन पर केन्द्रित रह जाता है। वह देखती है कि भाई कितना पैसा (धन) दे रहा है। परन्तु इसके पीछे जो प्यार, स्नेह, सौहार्द का भाव होना चाहिए वह भुलाया जा रहा है। यदि बहन भाई दोनों अपना नैतिक कर्तव्य समझ कर अपने आपको आरक्षित करें तो पारिवारिक प्रेम, सामाजिक समरसता तथा राष्ट्रीय हितों में अभिवृद्धि हो सकती है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में जरुरी है कि वे अपने आग्रह विग्रह कदाग्रह को त्याग कर नैतिकता और चरित्र निष्ठा के द्वारा संयम भावना को सुरक्षित करें। संयमः खलु जीवनम् - संयम ही जीवन है इस उद्घोष के साथ संकल्प करे। जिससे यह लौकिक पर्व अलौकिक बन कर सबकी सुरक्षा में निमित्त बन सके। पर्व प्रतिवर्ष आते हैं और एक सन्देश मानवता के नाम पर छोड़ जाते हैं। उन पर्वों की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकती है जब व्यक्ति इसकी मूल भावनाओं को आत्मसात करे अन्यथा इन पर्वों का कोई औचित्य नहीं रह जाता जो कि वर्तमान समय में देखा जा रहा है। अतः आवश्यकता है भारत जैसे धार्मिक आध्यात्मिक कहलाने वाले राष्ट्र में पर्वों के महत्व को समझें और उसे उसी रूप में आस्था के साथ अपनाने का भरसक प्रयास करें।