धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

२. सु + आ + ध्याय
सु- अच्छा, आ समग्रता से
ध्याय - चिन्तन, मनन
अच्छे (आध्यात्मिक) तथ्यों पर चिन्तन-मनन करना स्वाध्याय है।
३. स्व + अध्याय
स्व अपना, अध्याय अध्ययन अपने बारे में अध्ययन करना स्वाध्याय है।
स्वाध्याय का उद्देश्य
जन साधारण जीविका निर्वाह को शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य मानता है। जीविका-निर्वाह आवश्यक है पर वह हमारे जीवन का अनन्य लक्ष्य नहीं है। हम भोजन-पानी आदि के द्वारा अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते हैं। पर हमारी आत्मा की भी कोई अपेक्षा या खुराक होती है। इस तथ्य को हम अक्सर भूल जाते हैं। हमारी आन्तरिक अपेक्षाओं की पूर्ति का एक सशक्त साधन है- सत्साहित्य का स्वाध्याय।
दशवैकालिक सूत्र में अध्ययन के चार उद्देश्य बतलाए गए हैं-
१. सुयं में भविस्सइत्ति अज्झाइयव्यं भवइ।
२. एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ।
३. अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ।
४. ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ।
अध्ययन का प्रथम उद्देश्य है ज्ञान-प्राप्ति। दूसरा उद्देश्य है- चित्त की एकाग्रता। तीसरा उद्देश्य है- अपने आप को समाधि एवं शान्ति में स्थापित करना। अध्ययन का चौथा उद्देश्य है- स्वयं शान्ति एवं समाधि में स्थित होकर दूसरों को समाधिस्थता में निमित्त बनना।
प्राचीन आचार्यों ने परमात्मा प्राप्ति के साधनों का उल्लेख करते हुए कहा–
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्याय मामनेत्।
स्वाध्याय ध्यानसम्पत्या परमात्मा प्रकाशते ।।
स्वाध्याय के बाद साधक ध्यान का अवलम्बन ले और फिर ध्यान के बाद स्वाध्याय में संलग्न हो। इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान के सतत अभ्यास से चेतना प्रकाशित हो जाती है।
स्वाध्याय के प्रकार
१. वाचना– अध्यापन करना। वाचना का शिष्याध्यापनम् (शिष्यों को पढ़ाना) अर्थ मिलता है। यह प्रश्न उठता है कि अध्यापन या पाठन करने वाले गुरुओं के तो 'वाचना' स्वाध्याय होता है। परन्तु शिष्य गुरु से पढ़ते हैं अथवा पुस्तक आदि पढ़ते हैं उनके कौन-सा स्वाध्याय होता है? उनका पढ़ना भी 'वाचना' के अन्तर्गत मान लिया जाए तो क्या कठिनाई है? अध्ययन और अध्यापन दोनों को ही 'वाचना' के सीमाक्षेत्र में रखना असंगत प्रतीत नहीं होता।
२. प्रतिप्रच्छना– अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना। पूछना भी ज्ञानवृद्धि में सहायक बनता है। श्रीमद् भगवद् गीता में ज्ञान वृद्धि के लिए पूछने का निर्देश किया गया है-
तद्विद्धि प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन सेवया।
प्रणाम, प्रश्न और सेवा के द्वारा ज्ञान को जानो। जिज्ञासावृत्ति से ज्ञान की स्पष्टता हो सकती है।
३. परिवर्तना– परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए उसे बार-बार दोहराना।
४. अनुप्रेक्षा– परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना।
५. धर्मकथा– स्थिरीकृत और चिंतित विषय का उपदेश करना।
स्वाध्याय ज्ञानप्राप्ति का एक उपाय है। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी से ज्ञात हुआ कि उनके गुरुवर परमपूज्य कालूगणी फरमाते थे-
खान-पान सब ही तजै, निश्चै मांडे मरण।
'घो. चि. पु. लि.' करतो रहै, जद आवै व्याकरण।।