जवानी पर रहे धर्म का अंकुश : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

जवानी पर रहे धर्म का अंकुश : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने आगम की अमृत वर्षा करते हुए फरमाया कि आदमी के जीवन में यौवन अवस्था महत्वपूर्ण अवस्था होती है। युवा अवस्था में बहुत कार्य किया जा सकता है। परिवार, समाज, राजनीति में काम किया जा सकता है। अध्ययन होने के बाद जवानी का उपयोग खुले आकाश में दौड़ लगाने में होना चाहिए। जवानी की अवस्था में रास्ता गलत ले लिया जाए तो यह अवस्था पतन के गर्त में ले जाने वाली हो सकती है, युवावस्था अनर्थकारी हो सकती है। धन संपत्ति सार्थक भी हो सकती है, लौकिक कार्यों में उत्थानकारी हो सकती है। धन-संपत्ति यदि दुर्व्यसनों- विलासिता में लगती है तो वह धन निरर्थक भी हो सकता है। किसी को प्रभुत्व सत्ता मिल जाए, सत्ता का भी दुरुपयोग हो सकता है तो सेवा में सदुपयोग भी हो सकता है। सत्ता में आकर जो सेवा करता है तो सेवा का सदुपयोग भी हो सकता है।
अविवेकता भी अनर्थकारी होती है। युवा अवस्था, धन-संपत्ति और सत्ता के साथ यदि विवेक जुड़ जाए तो यह सदुपयोगी हो सकती है। अवस्था बीत रही है, बुढ़ापा आ रहा है, जवानी जा रही है, जवानी का धार्मिक- आध्यात्मिक उपयोग भी करें। पारिवारिक जवाबदारी के साथ धार्मिक क्रिया भी करें। परिवार के साथ शनिवार की सामायिक तो हो ही जाए, नमस्कार महामंत्र का जप भी होता रहे। जवानी पर धर्म का अंकुश रहे, यह निरंकुश हो गई तो गलत राह पर जा सकती है। जवानी का बढ़िया उपयोग करें, अवस्था आने के बाद जीवन में मोड़ भी लिया जा सकता है। धर्म की दृष्टि से आगे बढ़ें, खान-पान का ध्यान रखें। युग के साथ चलें, पर जमाने को अपने अच्छे सिद्धांत पर चलाने का भी प्रयास करें।
जवानों के लिए संदेश है कि जागरुक रहो। अच्छे संस्कारों में रहो। गया हुआ समय पुनः लौटता नहीं है। जवानी के मोती को खोना नहीं है, उसको अच्छा जीने का प्रयास करें। ऊपरले आख्यान में पूज्यप्रवर ने मुनि गजसुकुमाल के प्रसंग को प्रस्तुत किया। साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि तीर्थंकरों के लिए कहा गया है- रज-मल से मुक्त। अर्हत् हमारे आदर्श होते हैं। आत्मा से युद्ध करें तो आत्मा रज-मल से मुक्त बन सकती है। जीव स्वयं कर्मों का कर्ता है, स्वयं ही भोगता है और कर्मों को तोड़ता है। पाप की कमाई में सब हिस्सेदार बन सकते हैं पर पाप का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। हमें इन पाप कर्मों को तोड़ने का प्रयास करना है, उसके लिए आत्मा को पुरुषार्थ करना होगा।