भगवती संवत्सरी का दिन है विशेष धर्माराधना का दिन : आचार्यश्री महाश्रमण
पर्वाधिराज पर्युषण का शिखर दिवस भगवती संवत्सरी। क्षमा के सागर गुण रत्नाकर महा तपस्वी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने भगवती संवत्सरी के पावन अवसर पर सम्पूर्ण धर्मसंघ को मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया गया है। धर्म की आराधना का क्रम भी दुनिया में चलता है। सृष्टि का मानो सौभाग्य है कि इस दुनिया में हमेशा तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं।
ऐसा कोई ऐसा समय नहीं होता, जब पूरी सृष्टि में कहीं न कहीं धर्म की आराधना नहीं होती हो। धर्म की आराधना साधु भी करते हैं और गृहस्थ भी करते हैं। यूं तो धर्म की आराधना सदैव करणीय होती है पर कुछ-कुछ समय विशेष साधना के लिए भी होते हैं। जैन शासन की श्वेताम्बर परंपरा में पर्युषण महापर्व के अंतर्गत भगवती संवत्सरी का दिन विशेष धर्माराधना का दिन होता है। यह क्षमा
का पर्व है, मैत्री से जुड़ा हुआ है। पिछली सारी कटुताओं को, वैर विरोध को दूर करने का दिन है। चारित्र आत्माओं में तो विशेष साधना चलती है पर गृहस्थों में भी धर्म की अच्छी साधना चले। नमस्कार महामंत्र तो जैन धर्म की पहचान है, नाश्ते से पहले रोज नमस्कार महामंत्र की माला हो जाए। शनिवार को सायंकाल 7 से 8 बजे के बीच सामायिक होती रहे। हमारे जैन समाज में खान-पान की शुद्धि रहे, नशा मुक्ति रहे। भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ को शिखर पर पहुंचाते हुए बताया कि अंतिम भव में त्रिशला के गर्भ से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को एक पुत्र का जन्म हुआ। जन्म के बारहवें दिन नामकरण के लिए स्वजन एकत्रित हुए। पिता सिद्धार्थ बोले कि जब से बालक गर्भस्थ हुआ तब से हमारे राज्य में सभी प्रकार की वर्धमानता हो रही है इसलिए बालक का नाम वर्धमान होना चाहिए। वर्धमान में बचपन से ही निर्भीकता थी। उन्हें पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजा गया, पर वे तो तीन ज्ञान के धनी थे, शीघ्र ही गुरुकुल से वापस लौट आए। थोड़ी उम्र आने पर उनके माता-पिता ने उनकी शादी करा दी। माता-पिता के देहावसान के बाद, राजकीय शोक संपन्न होने के बाद, वर्धमान सर्व सावित्री योग का तीन कारण तीन योग से त्याग कर साधुपन स्वीकार कर लेते हैं। दीक्षा के पहले दिन ही परीषह का क्रम प्रारम्भ हुआ, जिसे इन्द्र द्वारा दूर किया गया। आगे चण्डकौशिक सर्प, शूलपाणी यक्ष आदि के भी परीषह भी भगवान को डिगा नहीं पाए। लगभग बारह वर्षों की साधना के बाद उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। जनकल्याण के बाद पावापुरी लगभग बहत्तर वर्ष की आयु में उनका महाप्रयाण हुआ।
मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने भगवती संवत्सरी महापर्व की महिमा का वर्णन करते हुए कहा कि जैसे सब मंत्रों में परमेष्ठी मंत्र, तीर्थों में तीर्थंकर, दानों में अभय दान, ग्रहों में गुरु, व्रतों में ब्रह्मचर्य और नियमों में संतोष श्रेष्ठ है, वैसे ही सब पर्वों में पर्वाधिराज भगवती संवत्सरी का दिन श्रेष्ठ है। इसमें देह शुद्ध नहीं आत्म विशुद्ध का प्रयास किया जाता है। आचार्य प्रवर ने दूसरे सत्र के मंगल प्रवचन में तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य अनुशास्ता आचार्यश्री भिक्षु एवं धर्म संघ के पूर्वाचार्यों के जीवन प्रसंगों को वर्णन किया। साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने आचार्यश्री महाश्रमणजी के जीवनवृत्त व कर्तृत्व का वर्णन किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने आचार्य संपदा विषय पर अपनी अभिव्यक्ति दी। साध्वीवर्या श्री साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने ‘आत्मा की पोथी’ गीत का संगान किया। भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों के विषय में साध्वी राजश्रीजी ने अपनी प्रस्तुति दी। साध्वी प्रबुद्धयशाजी ने जैन धर्म की प्रभावक साध्वियों के विषय में अपनी प्रस्तुति दी।