पुण्य कर्म के योग से मिलती है सत्ता : आचार्यश्री महाश्रमण
जप दिवस-पर्युषण पर्वाधिराज का छठा दिन। अध्यात्म योगी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने भगवान महावीर के पूर्व भवों की विवेचना कराते हुए नयसार की आत्मा के पांचवे भव से 25वें भव तक की यात्रा करवाई। चौथे भव में पांचवें देवलोक का जीवन सम्पन्न कर भगवान महावीर की आत्मा मनुष्य के रूप में कौशिक नाम के ब्राह्मण बने, जीवन के संध्या काल में तापस बन साधना में लग गए। जीवन के सन्ध्याकाल में कुछ विशेष साधना हो सके तो बहुत अच्छी बात हो सकती है। अनेक भवों के आयुष्य को पूर्ण करते हुए अपने अठारहवें भव में वे पुनः मनुष्य के रूप में पोतनपुर नामक नगरी के राजा प्रजापति की दूसरी रानी मृगावती के पुत्र त्रिपृष्ठ के रूप में उत्पन्न हुए। राजतंत्र में राजा सेवा के लिए होता है तो लोकतंत्र में राजनेता सेवा के लिए होते हैं। पुण्य कर्म के योग से सत्ता मिलती है, सत्ता का घमण्ड नहीं करना चाहिए। सत्ता सेवा के लिए है, उसके अनुरूप जनता की सेवा करने का प्रयास करना चाहिए। राजनीति हो, समाजनीति हो, धर्मनीति हो, चाहे संस्थाएं हो, उनका जो मुखिया बनता है, उसकी टीम भी सक्षम हो और मुखिया में काम कराने की भी दक्षता होनी चाहिए।
त्रिपृष्ठ प्रतिवासुदेव का वध कर वासुदेव बनता है और यहां क्रूर होकर कई कर्मों का बन्ध कर सातवीं नरक में उत्पन्न होता है। इस प्रकार जन्म-मरण करते हुए 23वें भव में पुनः मनुष्य बनते हैं। पश्चिम महाविद्यालय में मौका नगरी में राजा धनंजय और रानी धारिणी के पुत्र को जन्म दिया, नाम रखा गया प्रियमित्र। प्रियमित्र चक्रवर्ती बना और फिर सत्ता को छोड़ आत्म कल्याण के लिए साधु भी बन गया। सातवें देवलोक में 24 वां भव पूर्ण कर 25वें भव में राजकुमार नंदन के रूप में जन्म लेते हैं। 23 लाख वर्ष तक गृहस्थ रहने के बाद नन्दन राजर्षि बन गया। एक लाख वर्ष के संयम पर्याय में विशिष्ट तपस्या कर तीर्थंकर नाम गोत्र का उपार्जन कर लिया। उसके बाद भगवान महावीर की आत्मा दसवें देवलोक में उत्पन्न होती है।
जप दिवस के संदर्भ में पूज्य प्रवर ने फरमाया कि जप साधना का अच्छा प्रयोग है। इससे निर्जरा का लाभ मिल सकता है। कोई अक्षर ऐसा नहीं है, जो मंत्र नहीं है। कोई ऐसी वनस्पति नहीं जो औषधि न हो और कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होता, जिसमें कोई अर्हता नहीं होती। जप तो जन्म-मरण का नाश करने वाला हो सकता है। आवश्यकता है इनका सही संयोजन करने वाले की। जप का प्रयोग भाव शुद्धि का अच्छा साधन बन सकता है। इसके बाद भी आदमी को जितना जहां संभव हो, अपने कार्य के प्रति भी जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए।
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि शक्ति के अनेक स्रोत है उनमें एक है- शब्द। शब्द की आवृत्ति से पैदा होने वाले प्रकंपन हमारे शरीर, मन और भावों को प्रभावित करते हैं। जप का प्रयोग स्पष्टता, तन्मयता और एकाग्रता से करना चाहिये। मंत्र की आराधना का एक लक्ष्य आत्मा साधना है, इसमें भौतिक कामना न हो। साधना में जाने वाले साधक का यही लक्ष्य होना चाहिये कि मन में कोई कामना न हो। जप का दूसरा लक्ष्य होता है देवता की आराधना और तीसरा लक्ष्य बताया गया कष्ट को दूर करना। मंत्र साधना का सबसे महत्वपूर्ण लाभ है- हमारे कर्म संस्कारों का क्षीण होना। हम आत्मा को निर्मल बनाने के लिए मंत्र की साधना करें।
मुख्य मुनिश्री तप-त्याग धर्म पर विवेचना करते हुए कहा कि तप और त्याग दो ऐसे मार्ग हैं जिनसे हम आत्म साक्षात्कार कर सकते हैं। तप से अतीत के पाप कर्मों का प्रक्षालन होता है, अनागत भविष्य की वासनाओं का विसर्जन होता है और व्यक्ति की आत्म शक्ति का संवर्द्धन होता है। करोड़ों-करोड़ों वर्षों के संचित कर्म भी तप के द्वारा निर्जरित हो जाते हैं। तप वही कर सकता है जिसके अंतराय कर्म का क्षयोपशय होता है। त्याग स्वाधीनता से होता है, आत्म कल्याण की भावना से होता है। राग के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है। व्यक्ति त्याग की चेतन को जगाए। साध्वीवर्या जी ने तप और त्याग विषय पर गीत का संगान किया। मुनि नम्रकुमारजी व मुनि विनम्रकुमारजी ने तीर्थंकर अरिष्टनेमि के जीवनवृत्त का वर्णन किया। साध्वी मार्दवयशाजी, साध्वी चैतन्ययशाजी व साध्वी कमनीयप्रभाजी ने जप दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।