पुरूष सिंह, पुरूषोत्तम, पुरूषवर पुंडरीक थे भगवान महावीर : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

पुरूष सिंह, पुरूषोत्तम, पुरूषवर पुंडरीक थे भगवान महावीर : आचार्यश्री महाश्रमण

पर्वाधिराज पयुर्षण का सातवां दिन-ध्यान दिवस। निर्जरा के बारह भेदों में ध्यान और स्वाध्याय को उत्कृष्ट निर्जरा का उपाय बताया है। ध्यान योगी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के प्रसंगों को व्याख्यायित कराते हुए फरमाया कि दुनिया में कुछ पुरूष सिंह होते हैं, पुरूषोत्तम, पुरूषवर पुंडरीक होते है। भगवान महावीर इसी कोटि के महान व्यक्तित्व थे। परम प्रभु महावीर का जीव दशम देवलोक का आयुष्य संपन्न कर वहां से च्युत होता है। भगवान महावीर के पांच प्रसंग एक ही नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र  में सम्पन्न हुए। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के योग में वह आत्मा दसवें देवलोक से च्यव कर मनुष्य लोक में गर्भ में स्थिति प्राप्त करती है। प्रभु का गर्भ संहरण का प्रसंग भी इसी नक्षत्र की स्थिति में हुआ। प्रभु का जन्म, दीक्षा स्वीकार, केवल ज्ञान-केवल दर्शन की प्राप्ति भी इसी नक्षत्र के योग में हुई।
प्रभु महावीर की आत्मा दशम देवलोक से च्युत हुई तब चौथे अर का अंतिम समय था। उस समय आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को वैशाली नगरी के उपनगर ब्राह्मणकुण्ड नामक गांव में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा के गर्भ में गर्भस्थ होती है। इन्द्र के मन में एक विचार आया कि भगवान का जन्म क्षत्रिय वंश में होना चाहिये। इन्द्र के निर्देश पर हरिण्गमेषी देव ने गर्भ की 83वीं रात्रि में देवानंदा के गर्भ को क्षत्रिय सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला की गर्भ में स्थापित किया और त्रिशला के गर्भ को देवानंदा के गर्भ में स्थापित कर दिया गया। शिशु का विकास अब त्रिशला के गर्भ में हो रहा है। मां को कष्ट न हो इसलिए गर्भस्थ शिशु ने अपना हलन-चलन बंद कर किया तो मां दुःखी हो गयी। मां को दुःखी देख बालक ने पुनः अपना हलन-चलन प्रारम्भ कर दिया। माता-पिता कितने उपकारी होते हैं। उस शिशु ने गर्भ में ही यह प्रतिज्ञा कर ली कि माता-पिता के संसार में रहते हुए साधु दीक्षा नहीं स्वीकार करूंगा। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में और रानी त्रिशला एक सुशिशु को प्रसूत करती है। बारहवें दिन नामकरण संस्कार कर शिशु का नाम वर्धमान रखा जाता है। 
ध्यान दिवस के संदर्भ में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए पूज्य प्रवर ने फरमाया कि ध्यान अपने आप में साधना है। हमारे यहां प्रेक्षाध्यान की पद्धति प्रचलित है। 30 सितम्बर को प्रेक्षाध्यान दिवस पर प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष का शुभारम्भ होने वाला है। प्रेक्षाध्यान दिवस गुरुदेव तुलसी के शासनकाल में व मुनि नथमलजी (टमकोर) के योगदान से प्रारम्भ हुआ। वह केवल तेरापंथ के लिए नहीं, जैन-अजैन सभी के लिए कारगर बना। आदमी अपने जीवन में यथायोग्य ध्यान का भी अभ्यास करें, यह काम्य है। 
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने ध्यान दिवस के उपलक्ष में कहा कि हमें भीतर की यात्रा प्रारम्भ करनी है। भीतर की यात्रा ध्यान के द्वारा प्रारम्भ होती है। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ध्यान सर्वश्रेष्ठ साधन है। ध्यान कर्म निर्जरा का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जिस एकाग्रता से हमारे राग द्वेष अल्प हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं, वह ध्यान है। ब्रह्मचर्य धर्म पर मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने गीत का संगान किया। साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने ब्रह्मचर्य धर्म की चर्चा करते हुए कहा कि अध्यात्म की साधना में लीन होने के लिए हमें इंद्रिय और मन का नियंत्रण करना जरूरी है। समुद्र को पार करने में जैसे नौका श्रेष्ठ होती है, वैसे ही इस संसार समुद्र को पार करने के लिए ब्रह्मचर्य की साधना श्रेष्ठ होती है। पदार्थों के प्रति आसक्त व्यक्ति आत्मा में रमण नहीं कर सकता। कहा गया कि तपों में श्रेष्ठ तप है ब्रह्मचर्य। हम योगाभ्यास और निमित्तों से बचाव कर ब्रह्मचर्य की साधना कर सकते हैं।
मुनि पार्श्वकुमारजी व मुनि केशीकुमारजी ने भगवान पार्श्वनाथ के जीवनवृत्त पर अपनी प्रस्तुति दी। साध्वी स्तुतिप्रभाजी ने ध्यान दिवस पर गीत का संगान किया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।