स्वाध्याय के द्वारा करें अपने ज्ञान को  बढ़ाने का प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

स्वाध्याय के द्वारा करें अपने ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

पर्वाधिराज पर्युषण का द्वितीय दिवस - स्वाध्याय दिवस। महावीर समवसरण में अध्यात्म योगी आचार्य श्री महाश्रमण जी ने 'भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा' का रसास्वादन कराते हुए फरमाया कि महाविदेह की हर विजय में तीर्थंकर हो सकते हैं। इसी जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह की महावप्र विजय में जयन्ति नाम की नगरी थी। वहां का राजा शत्रुमर्दन था। उसके राज्य में पृथ्वी प्रतिष्ठान नाम की नगरी का अधिकारी नयसार था। राजा का कर्तव्य होता है कि वह प्रजा की रक्षा करे, भरण-पोषण करे। राजतंत्र हो या लोकतंत्र दोनों का लक्ष्य होता है कि प्रजा की रक्षा करे। राजनीति सेवा का माध्यम होता है। राजनीति में भी अहिंसा, प्रामाणिकता और सद्भावना रहे। प्रजा का भौतिक विकास करना राजनीति का कार्य है, इसके साथ आध्यात्मिकता और नैतिकता भी विकसित हो, पुष्ट हो। एक ओर व्यवस्था तंत्र है, दूसरी ओर हृदय परिवर्तन है। ये दोनों अगर मजबूत रहें तो जनता का विकास हो सकता है।
राजा शत्रुमर्दन ने नयसार को लकड़ी लाने का आदेश दिया। वह जंगल में गया, भूख लगने पर भोजन करने बैठा। तभी उसे कुछ साधुओं की मंडली दिखाई दी। जानकारी मिली कि ये साधु मार्ग भूल कर आये हैं। मन में भक्ति जागी और संतों से निवेदन किया कि मुनिवर! शुद्ध आहार उपलब्ध है, हमें दान का मौका दीजिए। साधुओं को दान देना अच्छी बात है। मैं भी न भूखा रहूं, साधु न भूखा जाय। नयसार ने साधुओं को दान दिया। भावना भाना बड़ी बात है, चाहे साधु आये या न आये, पर भावना भाना धार्मिक लाभ देने वाला सिद्ध हो सकता है। नयसार ने संतों को सही मार्ग दिखाया तो साधुओं ने भी उसे प्रतिबोध दिया।
स्वाध्याय दिवस के अवसर पर पूज्य प्रवर ने फरमाया कि ज्ञान से आदमी पदार्थों को, भावों को जानता है। ज्ञान दो तरह का हो सकता है- एक ज्ञान कुए के समान होता है, जो भीतर से प्रस्फुटित होता है, दूसरा ज्ञान कुंड के समान होता जो किताबें आदि पढ़कर ग्रहण किया जाता है। स्वाध्याय के द्वारा बाहर का ज्ञान संग्रहित हो सकता है। स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं- वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा। ज्ञान को पढ़ें, सुनें, पृच्छना करें, पुनरावर्तन करें, अनुप्रेक्षा करें और परोपकार के रूप में धर्म का प्रचार करें। स्वयं कमाई करें और दूसरों का कल्याण करें। स्वाध्याय के द्वारा हम अपने ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करें। आचार्य प्रवर के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि स्वाध्याय हमारी शारीरिक कैलोरी और मानसिक स्फूर्ति को बढ़ाने वाला है। स्वाध्याय से शक्ति का संवर्द्धन होता है, एक नया आलोक प्राप्त होता है।
स्वाध्याय को निर्जरा का एक प्रकार बताया गया है। साधु तो स्वाध्याय में रत रहे। स्वाध्याय से साधु कर्म मलों को दूर कर आत्मा को निर्मल बनाता है। जो व्यक्ति अपना अध्ययन करता है, आत्म चिंतन करता है वह व्यक्ति कैवल्य की भूमिका तक भी पहुंच सकता है। हम ज्ञान प्राप्ति के लिए, एकाग्रचित होने के लिए, आत्मा को स्थिर करने के लिए और दूसरों को ज्ञान में स्थित करने के लिए स्वाध्याय करें।
मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने क्षांति-मुक्ति धर्म को विवेचित करते हुए कहा कि व्यक्ति धार्मिक कहलाना चाहता है, पर जब तक उसके भीतर धर्म के महल में प्रवेश करने की चेतना जागृत नहीं होगी तब तक वह उसमें प्रवेश नहीं कर पाएगा। क्षांति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव - ये चार ऐसे द्वार हैं जो धार्मिक होने के लक्षण हैं। 10 प्रकार के श्रमण धर्म में एवं चार प्रकार के धर्म द्वारों में पहला द्वार है- क्षांति धर्म। मुख्य मुनि श्री ने क्षमा की व्याख्या करते हुए कहा - किसी प्रकार की प्रतिकूल स्थिति आने पर भी सहज भाव से सहन करना क्षमा है, उत्तेजित होने का अवसर आने पर भी शांत रहना क्षमा है, सामने वाले की दुर्बलता को अपनी स्नेह की धारा से विलीन कर देना क्षमा है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है।
क्षमा का आधार लिए बिना कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक जीवन नहीं जी सकता। आत्म चिंतन के द्वारा व्यक्ति क्रोध के कारण को जाने और फिर उसके निवारण का प्रयास करें। दूसरा द्वार है मुक्ति। हम लोभ को जीतकर वीतरागता की दिशा में गतिशील बनें। साध्वीवर्या श्री सम्बुद्धयशाजी ने क्षांति-मुक्ति धर्म पर आधारित गीत का संगान किया। साध्वीवर्या जी ने कहा कि धर्म का दूसरा द्वार मुक्ति को बताया गया है। जहां निर्लोभता जाग जाती है, वह मुक्ति कहलाती है। निर्लोभता के लिए हमें अनासक्त जीवन जीना होगा। मुनि सिद्धकुमारजी ने तीर्थ और तीर्थंकर विषय पर अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। साध्वी प्रीतिप्रभाजी ने स्वाध्याय दिवस पर गीत का संगान किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।