सम्यक्त्व का मूल तत्व है यथार्थ पर श्रद्धा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सम्यक्त्व का मूल तत्व है यथार्थ पर श्रद्धा : आचार्यश्री महाश्रमण

महावीर के प्रतिनिधि आचार्य श्री महाश्रमण जी ने प्रभु महावीर के भवों की जीवन यात्रा का विश्लेषण करते हुए फरमाया कि भगवान महावीर ने अपने अनंत जन्मों में एक नयसार के भव में सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति की थी। इसलिए ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ का शुभारम्भ इसी भव से किया जाता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होना बड़ी उपलब्धि है, इससे बड़ा रत्न नहीं होता है। चारित्र को सम्यकत्व पर निर्धारित रहना होता है, किन्तु सम्यकत्व को चारित्र की अपेक्षा नहीं होती है। इस कारण सम्यकत्व चारित्र से बड़ा होता है। सम्यकत्व स्वतंत्र भी हो सकता है। नयसार ने सम्यक्त्व का पालन किया। जो चीज मिल जाये उसकी देखभाल रखो। वह सत्य है, वह सत्य ही है जो जिनों ने प्रवेदित किया है। यथार्थ पर हमारी श्रद्धा हो। यह सम्यक्त्व का मूल तत्व है। साथ में कषाय का प्रतनुकरण हो। तत्व को समझने का प्रयास करें, साथ में यथार्थ को ग्रहण करें। अनाग्रह भाव से समझने पर नया आलोक मिल सकता है। 
नयसार का आयुष्य पूरा कर महावीर की आत्मा प्रथम देवलोक में उत्पन्न होती है। वहां से च्युत होकर पुनः मनुष्य जन्म प्राप्त कर भगवान ऋषभ के पौत्र और चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचि के रूप में उत्पन्न हुए। भगवान ऋषभ की देशना सुन मरीचि प्रभु के पास दीक्षित हो जाता है। ग्यारह अंगों का अध्ययन करता है। ज्ञान वृद्धि और वैराग्य वृद्धि की दृष्टि से आगम स्वाध्याय करना चाहिये। प्यास के परीषह से मरीचि साधुपन छोड़, अलग होकर साधना करने लग जाता है। आचार्य प्रवर ने वाणी संयम दिवस के संदर्भ में प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी को अपनी वाणी का संयम रखने का प्रयास करना चाहिए। बोलना आवश्यक है, किन्तु वाणी का विवेक होना अतिआवश्यक होता है। विवेकपूर्ण वाणी वाणी संयम का ही एक माध्यम हो सकता है। 
साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने उद्बोधन प्रदान करते हुए कहा कि हमारे जीवन के दो पक्ष हैं- अध्यात्म और व्यवहार। अध्यात्म की गहराई में जाने के लिए मौन श्रेयस्कर है। व्यवहार जगत में बोलना पड़ता है। हमें मौन की यात्रा करनी है, वह भीतर की यात्रा है। इससे भीतरी सुख की अनुभूति होती है। अध्यात्म और व्यवहार जगत में संतुलन बनाते हुए हम वाणी संयम का प्रयोग करें।
मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने लाघव व सत्य धर्म की व्याख्या करते हुए कहा जो अकिंचन है वह तीन लोक का स्वामी हो सकता है।  लाघव धर्म की साधना करने वाला सुखी बन सकता है। सत्य धर्म का संबंध महाव्रत, अणुव्रत, भाषा समिति और वचन गुप्ति से है। जो चीज जैसी है उसको उसी रूप में प्रस्तुत करना और अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञा को निर्वाह करने की क्षमता रखता सत्य धर्म के अंतर्गत आता है। पंचपद वंदना में तीन शब्द आते हैं- भाव सत्य, करण सत्य, योग सत्य। भाव धारा की पवित्रता, कार्य की प्रामाणिकता (कथनी-करनी में एकता) और मन-वचन-काया की विशुद्धि से सत्य की आराधना की जा सकती है। साध्वीवर्या श्री सम्बुद्धयशाजी ने लाघव और सत्य धर्म पर आधारित गीत का संगान किया। मुनि मार्दवकुमारजी ने भगवान शांतिनाथ के विषय में और मुनि गौरवकुमारजी ने भगवान ऋषभ के संदर्भ में अपनी अभिव्यक्ति दी। सामायिक दिवस के संदर्भ में साध्वी वैराग्यप्रभाजी व साध्वी समत्वप्रभाजी ने गीत का संगान किया। वाणी संयम दिवस के संदर्भ में साध्वी प्रफुल्लप्रभाजी व साध्वी श्रुतविभाजी ने गीत का संगान किया। 
एक दिवस पूर्व ही आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में चतुर्मासरत और तपस्यारत साध्वी धैर्यप्रभाजी का देवलोक गमन हो गया था। उनकी स्मृतिसभा में आचार्य प्रवर ने साध्वी धैर्यप्रभाजी का संक्षिप्त जीवन परिचय प्रदान करते हुए उनकी आत्मा के आध्यात्मिक गति करने की कामना की। आचार्यश्री ने उनकी आत्मा की शांति के लिए चतुर्विध धर्मसंघ के साथ चार लोगस्स का ध्यान किया। तदुपरान्त मुख्यमुनिश्री, साध्वीप्रमुखाश्री, साध्वीवर्याश्री, साध्वी धैर्यप्रभाजी की संसारपक्षीया पुत्री साध्वी सिद्धार्थप्रभाजी, साध्वी सुमतिप्रभाजी, साध्वी जिनप्रभाजी, साध्वी हिमश्रीजी, साध्वी विशालप्रभाजी, साध्वी प्रांजलयशाजी, साध्वी हेमरेखाजी ने अपनी श्रद्धांजलि समर्पित की। साध्वी तेजस्वीप्रभाजी द्वारा रचित गीत को साध्वीवृंद ने प्रस्तुति दी। साध्वी सिद्धार्थप्रभाजी ने मुनि कौशलकुमारजी की भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। साध्वीवृंद ने उनकी स्मृति में एक गीत का संगान किया। ताराचन्द बोहरा, मधु बोहरा व रमेशचन्द बोहरा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। सेजल चोरड़िया आदि ने गीत का संगान किया।