तेरापंथ के आद्य प्रणेता आचार्य भिक्षु शुद्धाचार के पोषक थे
आचार्य भिक्षु का जन्म राजस्थान के मारवाड़ के कांठा विभाग के कंटालिया नगर के सकलेचा परिवार में पिता बल्लू शाह, माता दीपां की कुक्षि से विक्रम संवत 1783 आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन 1 जुलाई 1726 मंगलवार को सिंह स्वप्न से हुआ। आप जन्मजात ही प्रतिभावान और तेजस्वी थे। आपकी माता एक सरल स्वभावी और धर्मनिष्ठ महिला थी। बाल्यकाल में ही आपके पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। बड़े भाई अलग रहने लगे, आप घर की सारी जिम्मेदारी कुशलता से सम्पादित करते।
आपकी धर्मपत्नी भी धर्म परायण थी। एक पुत्री होने के पश्चात पति पत्नी धर्म के गहरे रंग मे रंग गए। जब-जब भी साधु-साध्वियों का संयोग मिलता, आप पूरा लाभ उठाते और उनसे आध्यात्मिक पाथेय प्राप्त करते रहते। साधु संतो के सम्पर्क से आपकी सुप्त वैराग्य भावना उजागर हुई और आप उस दिशा में गतिमान हो गये। गृहस्थ अवस्था में ही आपने एकांतर अर्थात एक दिन छोड़कर एक दिन उपवास करना प्रारम्भ कर दिया, रात्रि भोजन परिहार के साथ अब्रह्मचर्य का परित्याग कर साधना प्रारंभ कर दी। आपकी धर्मपत्नी सुगनी बाई भी आपके साथ दीक्षित होना चाहती थी, परन्तु उनका आयुष्य कम होने के कारण वे स्वर्गवासी हो गई। उनके स्वर्गवास के पश्चात आपकी वैराग्य भावना और अधिक प्रबल हो गई।
दीक्षा की बात जब माता को बताई तब माता ने घर में ही रहने का आग्रह किया, परन्तु आपका मन पूर्ण विरक्त हो चुका था। आपने पूज्य रघुनाथ जी के पास जाकर अपनी बात कही और रघुनाथ जी तत्काल माँ को समझाने पधारे और उनकी प्रेरणा से माता ने दीक्षा की अनुमति दे दी और विक्रम संवत 1808 मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को बगड़ी नगर के सरिता तट पर वटवृक्ष के नीचे आपने दीक्षा स्वीकार की। दीक्षित होते ही पूज्य रघुनाथ जी से आपको अयाचित आशीर्वाद मिला कि भीखण इस वटवृक्ष की तरह तेरा विस्तार हो। कहा जाता है कि आशीर्वाद एक बार मिलता है पर वह जीवन विकास का मार्ग प्रशस्त कर देता है।भीखण जी ने साधु बनते ही अपने महाव्रतों की परिपालना के साथ आगमों को कंठस्थ करना और उसे गहराई से समझने का प्रयास किया। आपकी विनम्रता, पवित्रता, सेवा भावना, कर्तव्यपरायणता देखकर पूज्य रघुनाथ जी ही नहीं अन्य साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी प्रसन्न थे। विकास के हर क्षेत्र में अहर्निश वर्धमान बनते जा रहे थे।
विक्रम संवत 1815 में आपको गुरुदेव ने प्रथम बार राजनगर मेवाड़ में चतुर्मास के लिए भेजा। उस समय आपके साथ टोकरजी, हरनाथजी, वीरभानजी और भारीमाल जी चार सन्त थे। राजनगर के श्रावक अनास्थावान बनते जा रहे थे, इसलिए उन्हें धर्म में स्थिर रहने के लिए ही विशेषकर भेजा गया। भीखण जी के आगमन से राजनगर के श्रावकों की शिथिलता पूर्ण समाप्त हो गई। आपका आचार-विचार, व्यवहार देखकर श्रावकों में चमक आ गई। लोगों की हार्दिक श्रद्धा भक्ति देखकर एक दिन भीखणजी ने वहाँ के विशिष्ट लोगों से सारी बातचीत की, तब पता चला कि आपका कथन बिल्कुल सत्य है परन्तु आपके शुद्धाचार विचार को देखकर सब प्रसन्न हो गये।
भीखण जी ने अनास्था की स्थिति कि जानकारी की तब श्रावकों ने कहा आजकल आगम सम्मत साध्वाचार नजर नहीं आता, यही हमारी अनास्था का मुख्य कारण है। उन्होनें अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा कि यह चतुर्मास का समय है आप कृपा करके आगम पढ़ें, देखें, अगर हमारी त्रुटि है तो हम सुधारेंगे, अगर आपकी है तो आप सुधारें, जिससे अनास्था का प्रसंग ही नहीं होगा। भीखणजी को बात अच्छी लगी उन्होंने चातुर्मास में दो-दो बार आगम पढ़े, सही स्थिति की जानकारी की और उन्हें लगा कि श्रावकों की बातें अन्यथा नहीं है। उन्होंने चतुर्मास के पश्चात गुरु के दर्शन कर सारी स्थिति स्पष्ट की परन्तु उसका कोई समुचित समाधान नहीं होने से दो वर्षोंं के पश्चात अर्थात विक्रम संवत 1817 चैत्र सुदी नवमी के दिन आपने बगड़ी नगर से अभिनिष्क्रमण किया।
अभिनिष्क्रमण करते ही संघर्षों का वातावरण प्रारंभ हो गया। प्रथम दिन आपको स्थानाभाव के कारण श्मशान में बनी जैतसिंह जी कि छतरी में रहना पड़ा। आहार, पानी, वस्त्र आदि के कष्ट लम्बे समय तक सहन किए, परन्तु आपका फ़ौलादी संकल्प कभी कंपायमान नहीं हुआ।
विक्रम संवत 1817 आषाढ सुदी पुर्णिमा शनिवार को नगर केलवा में पुनः भाव दीक्षा ग्रहण की। उस समय केवल तीन ही तीर्थ थे। साध्वियां विक्रम संवत 1821 में दीक्षित हुई। आपके शुद्धाचार विचार कि सौरभ जगह-जगह फैलती गई। आपने विक्रम संवत 1832 में प्रथम मर्यादा पत्र लिखा और अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति की। समय-समय पर दीक्षाएं होती गई, श्रावक-श्राविका बढ़ते गए।
आप समय-समय पर मर्यादाएं बनाते गए, जिससे साधु-साध्वियों कि साधना उत्तरोत्तर गतिमान रहे। विक्रम संवत 1860 में आप मारवाड़ के सिरियारी में चातुर्मास हेतु पधारे और भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी के दिन संथारा कर इस नश्वर देह से विदाई ली।
आपका हर दूरदर्शी चिंतन मील का पत्थर बन गया। आप द्वारा
लिखी गई मूल मर्यादाओं में आज तक कोई परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। वर्तमान में इस धर्मसंघ के एकादशवें अधिशास्ता महातपस्वी शान्तिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी की छत्रछाया में पूरा धर्मसंघ साधना के क्षेत्र में विकासशील है। आचार्य श्री भिक्षु के 222वें महाप्रयाण दिवस पर शत- शत वंदन।