संबोधि
व्रतों की साधना में संलग्न श्रावक भी मृत्यु से डरे नहीं। वह जब देख ले कि देह जीर्ण हो रहा है, तब मृत्यु से पहले ही मौत की तैयारी कर ले। इस तैयारी का नाम संलेखना है। इसमें वह भोग्य पदार्थों से अपने मन को हटाता है। उसका चिंतन होता है- 'मैंने संसार के समस्त पदार्थों का अनन्त कालचक्र में उपभोग किया है। यह सब उच्छिष्ट है। इन उच्छिष्ट पदार्थों में मेरा क्या आकर्षण ? विज्ञ पुरुषों के लिए वान्त भोजन स्वीकार्य नहीं होता। वह यों सोच सारहीन पदार्थों से जीवन-निर्वाह करने लगता है। इसके बीच कभी एक दिन का उपवास, कभी दो दिन का उपवास, कभी एक बार भोजन, कभी केवल रोटी खाकर पानी पीकर रह जाना आदि क्रियाओं के द्वारा शरीर को आमरण अनशन के लिए प्रस्तुत कर लेता है।
अनशन आत्महत्या नहीं, किन्तु स्वेच्छापूर्वक देह का त्याग है, देह के ममत्व का विसर्जन है। देह के प्रति आकर्षण बढ़ता है तब तक व्यक्ति मौत से कतराता रहता है। वह डॉक्टर और दवाइयों के आश्रित पलता है किंतु जब मोह विलीन होता है तभी अनशन स्वीकृत किया जा सकता है। अमरत्व की यह सबसे सुन्दर संजीवनी है कि देह के प्रति ममत्व का विसर्जन किया जाए। जैन दर्शन हर अवस्था में अनशन की अनुमति नहीं देता। उसका कथन है कि जब साधक को यह लगे कि शरीर शिथिल हो रहा है, उससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना होनी कठिन है, तब वह खान-पान के विसर्जन से देह- विसर्जन की बात सोचता है। इस दिशा में वह क्रमशः गति करता है और एक दिन संपूर्ण त्याग कर समाधि-मरण को प्राप्त करता है।
३९. संयमस्य प्रकर्षाय, मनोनिग्रहहेतवे।
प्रतिमाः प्रतिपद्येत, श्रावकः साधनारुचिः॥
संयम के उत्कर्ष और मन का निग्रह करने के लिए साधना में रुचि रखनेवाला श्रावक प्रतिमाओं को स्वीकार करे।
४०. दर्शनप्रतिमां तत्र, सर्वधर्मरुचिर्भवत्।
दृष्टिमाराधयंल्लोकः, सर्वमाराधयेत्परम्॥
४१. व्रतसामायिकपौषधकायोत्सर्गा मिथुनवर्जनकम्।
सच्चित्ताहारवर्जनस्वयमारम्भवजन चापि॥
४२. प्रेष्यारम्भविवर्जनमुद्दिष्टभक्तवर्जनञ्चापि।
श्रमणभूत एकादश प्रतिमा एता विनिर्दिष्टाः॥
(त्रिभिर्विशेषकम्)
श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं-
१. दर्शन-प्रतिमा दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करने वाला सब धर्मो-साधना के सभी प्रकारों में रुचि रखता है। वृष्टि की आराधना करने वाला सबकी आराधना कर लेता है। २. व्रत-प्रतिमा 3. सामायिक-प्रतिमा ४. पौषध-प्रतिमा ५. कायोत्सर्ग-प्रलिमा ६. ब्रह्मचर्य- प्रतिमा ७. सचित्ताष्हारवर्जन-प्रतिमा ८. स्वयं आरंभवर्जन-प्रतिमा ९. प्रेष्यारंभवर्जन-प्रतिमा १०. उद्दिष्टभक्तवर्जन-प्रतिमाः ११. श्रमणभूत- प्रतिमा।
प्रतिमा का अर्थ है अभिग्रह-अमुक प्रकार की प्रतिज्ञा, संकल्प। उपासक की ग्यारह प्रतिमाएं हैं। उनका विवरण इस प्रकार है :
दर्शनश्रावक :
यह पहली प्रतिमा है। इसका कालमान एक मास का है। इसमें सर्वधर्म विषयक रुचि होती है, किन्तु अनेक शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का आत्मा में प्रतिष्ठापन नहीं होता। केवल सम्यग् दर्शन उपलब्ध होता है।