प्राचीन युग की परम्परा का स्मरण कराने वाली तप चेतना
सध्वी धैर्यप्रभाजी धुन की धुनी साध्वी थी। पारिवारिक और भौतिक सुख-वैभव को त्याग कर वे परिवार सहित संयम सुखों का आस्वाद लेने के लिए भैक्षव शासन की नौका में आरूढ़ हुई। लगभग छः वर्षों के संयम पर्याय में उन्होंनें अपने त्याग वैराग्य की सुवास धर्मशासन में फैलाई। उनकी तप चेतना प्राचीन युग की परम्परा का स्मरण कराने वाली है। तपस्या के साथ-साथ उनकी सेवा भावना और ज्ञान के प्रति आकर्षण भी उल्लेखनीय है। उनके चेहरे पर मौन और मुस्कान का अद्भुत योग था। उन्होंने ‘अप्पोवही’ आगम सूक्त को अपने जीवन में चरितार्थ किया। चिकित्सा के इस वातावरण में दवाई का प्रयोग न करना उनकी दृढ़ता का निदर्शन है। वे कर्मठ, उत्साही और स्फूर्तवान साध्वी थी। साध्वोचित हर कार्य को सीखने और करने की उनमें ललक थी। उनके भीतर गुणदृष्टि और प्रमोदभाव था। वे कभी किसी के प्रति शिकायत भाव नहीं रखती, सबके प्रति अहोभाव रखती थी।
लगभग 50 वर्ष की आयु में दीक्षित होकर भी उन्होंने साधना में उत्कर्ष लाने का आयास किया। वे अपनी चर्या के प्रति सजग थी। उनके मन में गण-गणपति के प्रति अटूट आस्था थी। उनको देखकर ऐसा अनुभव हुआा कि उन्हें शरीर के प्रति नही आत्मा के प्रति आकर्षण था। प्राप्त सुविधाओं का भोग न कर उन्होंने कठोर चर्या का जीवन जीया। तपस्या के दौरान उनकी प्रसन्नता विलक्षण थी। उन्होंने बावन की तपस्या का लक्ष्य बनाया पर छियालीस की तपस्या में वे अकस्मात् कालधर्म को प्राप्त हो गई। उनके आध्यात्मिक उत्थान के प्रति शुभाशंषा करते हैं।