जीवन बहुत ही स्वावलम्बी था
साध्वी धैर्यप्रभाजी को विक्रम संवत 2081 में गुरू सन्निधि का सुअवसर प्राप्त हुआ। पूज्यप्रवर की मंगल सन्निधि में तपस्या प्रारम्भ की। उनका संकल्प इतना दृढ़ था कि मुझे गुरूदेव के दीक्षा कल्याणक के अवसर पर 51 दिन की तपस्या करना है। लेकिन विधि का ऐसा ही योग था कि 46 दिनों का तप करके अपनी जीवन यात्रा सम्पन्न की। वह साधक धन्य होता है जिसे अंतिम समय में गुरू की शरण मिलती है। मैंने देखा साध्वी धैर्यप्रभाजी का जीवन बहुत ही स्वावलम्बी था। उधना में एक महीने साथ में रहे। 9 महिनों से उनके तपस्या चल रही थी, उपवास, उपवास के पारणे में आयम्बिल करते। आयम्बिल करते तो स्वयं गोचरी वालों के साथ में जाते। एक दिन तो 10 माला उपर चढ़ना था, साध्वियों ने कहा हम लाकर दे देते हैं, उन्होंने कहा- नहीं महाराज! मैं तो स्वयं जाउंगी।
कृतज्ञता के भाव- कोई भी उनका सहयोग करते बार-बार कृतज्ञता ज्ञापित करते - आपने बहुत कृपा कराई। जब भी उनको उपदेश देने का कहते वो तैयार रहते, गीतिका भी बहुत अच्छी गाते थे।
अनासक्ति की चेतना जागृत थी-आयम्बिल की तपस्या में कैसी भी वस्तु मिले वे सहजभाव से, अनासक्त भाव से उसे खाते। कभी भी यह नहीं कहा कि यह वस्तु मुझे मिली नहीं है। यह सब उनकी अनासक्त चेतना का ही सुपरिणाम था।