निर्लिप्त साधिका
जिंदगी ऐसी बना जिंदा रहे दिलशाद तूं।
जब न हो तू दुनिया में, आए दुनिया को याद तूं।।
साध्वी श्री धैर्यप्रभाजी ने सुदीर्घ तपाराधना में सघन पुरुषार्थ कर संयम जीवन को धन्य कर पण्डित मरण को प्राप्त किया। गार्हस्थ्य के पांच दशक की संपूर्ति पर जिन्होंने सपरिवार श्रीचरणों में दीक्षा ली, मात्र छः वर्ष (लगभग) के संयम पर्याय में विदेह की साधिका, अनासक्ति का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करनेवाली, अपने संकल्प बल को प्रबल पुरुषार्थ और दृढ़ निश्चय के साथ तप समाधि से अपने जीवन को पूर्ण किया। अंतगडदसाओ में महासेन कृष्णा
के जीवन वृत्त को अपनाकर अपनी साधना का उत्कर्ष
प्राप्त किया।
बचपन में उत्पन्न वैराग्य के संस्कार को जिन्होंने अपने पूरे परिवार में संक्रांत किया, उस अंतर्मुखी आत्मा ने अपने आराध्य के श्री चरणों में प्राणार्पण कर दिया। अनासक्त जीवन में अनेकानेक बाह्याभ्यंतर परिस्थितियों को समता व सहिष्णुता से, अनुकूलता व प्रतिकूलता को गौण कर गुरुदृष्टि व तप साधना को अपना लक्ष्य बनाकर अविराम साधना के पथ पर बढ़ती रही। मेरे संसार से विरक्त होने के प्रसंगों में उनकी प्रेरणाएं निमित्त बनी। घर में सामायिक करने बैठती तो मुझे सामायिक की प्रेरणा देकर सामायिक करवाती, संसार की नश्वरता का बोध कराती। उनकी विरक्ति भरी औपदेशिक बातें सुनकर मेरे मन में वैराग्य का अंकरण हुआ। मैं जो कुछ भी अपनी संसारपक्षीय बड़ी बहन साध्वी श्री सिद्धार्थप्रभा जी से तत्त्वबोध प्राप्त कर आता, मुझसे चर्चा करती, जिज्ञासा समाधान के द्वारा तत्त्वज्ञान की गहराई में उतरने के लिए प्रेरित करती।
दीक्षित होने के बाद हुब्बली मर्यादा महोत्सव में हमारा अंतिम मिलन हुआ था और मुझसे पुन: चर्चा करते हुए आगम का गहरा अध्ययन करने लिए के लिए प्रेरित किया। जीवन विकास के कुछ सूत्र प्रदत्त किए—श्रमनिष्ठा, सेवाभावना, संघ-संघपति के प्रति विनय व समर्पण, गुरु दृष्टि की जागरूकता से आराधना करना, अधिक से अधिक अप्रमत्त रहना। संयम जीवन को तप समाधि से अपने आप को भावित करने वाली कठोर साधना कर उत्तरोत्तर बढ़ती रही। विविध अभिग्रह धारण कर अपने जीवन को साधना की प्रयोग भूमिका बना, साधुत्व के संस्कार को केवल आदर्श नहीं अपितु जीवन को संवारते हुए जीने की कला प्रस्तुत की। जैन साधना पद्धति के तपोयोग की साधना कर जीवन के उत्कर्ष को प्राप्त किया। आगम में अनेक तपस्वी महापुरुषों का विवेचन प्राप्त होता है— इस वर्तमान काल में उनके संयम जीवन में सुदीर्घ तपस्या व अस्वाद वृत्ति की साधना के संस्मरण पढने वालों को रोमांचित करते हैं।
हम तीनों भाई-बहनों के जीवन के विकास में, संस्कार निर्माण में, वैराग्य संवर्धन में, तथा ज्ञान-ध्यान में प्रवर्धमान बने रहने में उनकी प्रेरणा निरंतर बनी रहती। स्व. मुनि श्री अनिकेत कुमार जी स्वामी के संयम जीवन स्वीकार करने में अपूर्व योगदान था। उस पुण्यात्मा मातुश्री धैर्यप्रभाजी की आत्मा के प्रति उत्तरोत्तर आरोहण की मंगल कामना करता हूं। उनकी आत्मा शीघ्र मोक्षश्री का वरण करें।