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सुखे सुखे ऊपर ही रहो
साध्वी धैर्यप्रभाजी मेरे जीवन में श्रेय और प्रेय की कहानी है। एक मां होने के नाते उनका हम तीनों संतानों के प्रति प्रगाढ़ स्नेह भाव था। हम तीनों उनके गार्हस्थ्य जीवन की अमूल्य निधि थी। हमसे बढ़कर उनके लिए कोई नहीं था। हमारी इच्छा, हमारे विकास के लिए वे सब कुछ त्याग सकती थी। उनका हमारी पढ़ाई पर जोर रहता था। हमारी शिक्षा उच्च स्तरीय हो, उसके प्रति भी वे जागरूक रहती थी। जैसे-जैसे शिक्षा ऊंची हुई, साथ में खर्च भी बढ़े। उन्होंने इसकी कभी चिन्ता नहीं की। कई वर्षों तक आवश्यक गहनों के अलावा ज्यादा गहने नहीं खरीदती। वे उन को हमारी शिक्षा में लगा देती। उनका कहना था कि गहने तो बाद में जब तुम्हारी शादी होगी तब नए ट्रेन्ड के बनवा लूंगी, अभी मुझे जरूरत नहीं है।
प्रेरणा प्रोत्साहन तो उनका निरंतर चलता रहता था। उनकी दृष्टि थी कि केवल पढाई ही नहीं, अन्यान्य विषयों में भी हम आगे रहें। इसलिए प्रतिवर्ष स्कूल में होने वाली सभी एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज में भाग लेना हम तीनों के लिए अनिवार्य था। मैं कई बार कहती- मैं सिर्फ भाषण, चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लूंगी। वे कहती- नहीं, सभी में भाग लेना है। स्कूल में हम तीन ही बच्चे ऐसे थे जो सभी में भाग लेते। वे प्रतियोगिताएं थी- भाषण, लेखन, (अंग्रेजी, हिंदी), गायन, चित्रकला, स्पोर्ट्स, फैंसी ड्रेस आदि। उनका मानना था कि हमारा स्टेज फियर हटे, कोई कार्य आए तो किसी की राह नहीं देखनी पड़े। उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं था, भाग लेना जरूरी था। आज हम तीनों कुछ पढ़ सकते हैं, लिख सकते हैं, बोल सकते हैं, सृजन करते हैं, गायन कर सकते हैं, यह उन्हीं की बदौलत है। उन्होंने सिर्फ प्रेरणा ही नहीं दी वे स्वयं भी प्रेरणा, उत्साह व जुनून की धनी थी। छोटी वय में ही शादी हो जाने के कारण उन्होंने गार्हस्थ्य जीवन के अनेकानेक कार्य सीखे व सिखाए।
उन्हें खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, घूमने का भी शौक ठीक ही था, तो वैराग्य वृत्ति भी अच्छी थी। उन्हें प्रतिवर्ष केवल दो पिक्चर के अलावा देखने का त्याग था। यह इनका श्रेय का पंथ और सिर्फ हम बच्चे इससे वंचित न रहें उसके लिए उन्होंने दो रखा, वह था प्रेय का पंथ। उत्साह और उमंग ने दीक्षा लेने के बाद नया रूप ले लिया। दीक्षा के बाद पात्री के रंग रोगन सीखा, रजोहरण, पूंजनी भी बनानी सीखी, लोच भी वे स्वयं करते थे। शासनमाता की प्रेरणा से उन्होंने एक पूंजनी बनाई और प्रथम दीक्षा दिन पर उसे उपहृत किया व प्रथम बार बहिर्विहार यात्रा के बाद आचार्यप्रवर के प्रथम बार दर्शन करने पर आचार्यप्रवर को उपहृत किया। कई बार कई सतियां मिलकर एक ओघा निर्मित करते हैं वहां उन्होंने अकेले रजोहरण का निर्माण किया। वे लोच भी स्वयं करती थी। अठाई की तपस्या में भी उन्होंने लोच किया।
इतना ही नहीं आचार्यप्रवर के दीक्षा कल्याण महोत्सव पर 51 के 51 संकल्प पूरे किए। इसी दौरान उन्होंने अपनी संयम साधना को अनेकानेक व्यक्तियों को प्रेरणा दी। एक साल में 125 बारह व्रती बनाए, 55 लोगों को गुरु धारणा करवाई, 51 उपासक बनाए, 125 अणुव्रती बनाए। लोगों को तपस्या की भी खूब प्रेरणा दी। इन सबकी जानकारी मुझे तब इुई जब तपस्या के दौरान अनेक लोग उनके दर्शनार्थ आते। लगभग उनमें 20% लोग ऐसे थे जिन्हें मैं जानती। वे या तो ज्ञातिजन या परिचित थे। परन्तु लगभग 80% लोग ऐसे थे जिन्हें साध्वी धैर्यप्रभाजी की प्रेरणा छू गई। वे कहते- साध्वी धैर्यप्रभाजी के दर्शन करना चाहते हैं, उनकी प्रेरणा से हम उपासक बनें, मासखमण किया, तपस्या की, पखवाड़ा किया आदि। महाराज! हमनें देखा है, आपकी मां को इतने शांत, सरल, हमेशा स्वाध्याय, जप में रत रहते। 51 संकल्पों में एक था- 50 संस्कृत श्लोक की रचना करना। वे संस्कृत का क, ख भी नहीं जानती थी, पर फिर भी उन्होंने सामान्य संस्कृत सीखी, शब्दार्थ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग के नियम आदि जैसे तैसे जोड-तोड़ कर 50 श्लोकों की रचना की। अंग्रेजी भाषा के प्रति भी उनका लगाव अच्छा था। जब मैंने मासखमण तप किया तब उन्होंने मुझे अंग्रेजी में तीन गीत भेजे और साध्वी तेजस्वीप्रभाजी को भावों का समप्रेषण किया क्योंकि तब तक उन्होंने मोबाइल, प्रिन्ट आउट आदि का व्यवहार भी बन्द कर दिया। हमें भी निरन्तर इंग्लिश बोलने व पढ़ने की प्रेरणा देती रहती। उत्साह इतना था कि उन्हें उपदेश, भाषण, गीत आदि का कोड था। साध्वी उज्जलप्रभा जी ने उनकी तीव्र भावना देख उन्हें उपदेश व गीत का अवसर प्रदान किया, जिसको उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से किया। तत्वज्ञान, आगम की रुचि भी गहरी थी।
एक बार का प्रसंग- साध्वी धैर्यप्रभा जी ने मुझसे कहा- आप अपना पी.एच.डी का विषय तत्वज्ञान से संबंधित ही लेना, इससे वैराग्य बढता है। तभी मैंने उसे कहा- आपकी तत्वज्ञान में इतनी रूचि है तो आप तत्वज्ञान की परीक्षा क्यों नहीं देते? तब अपना संकल्प बताते हुए उन्होंने कहा- महाराज! मेरे प्रिंट आउट का उपयोग नहीं करने का संकल्प है। यदि एक्जाम दूंगी तो प्रिंट आउट मेरे निमित्त से होगा। यदि मेरे लिए लिखित का पेपर मिल जाए तो मैं तैयार हूं। मेरे मन में महाप्रज्ञ श्रुताराधना की परीक्षा देने की इच्छा है। हालांकि पूरा तो मैं नहीं कर पाऊंगी परन्तु कम से
कम एक पेपर देने की इच्छा है, यदि मेरे लिए पेपर
बन जाए तो। उन्होंने औसध आदि का प्रयोग नहीं किया, वे कभी गत्ता नहीं लगाती, मच्छरदानी उपयोग में नहीं लेती, चप्पल नहीं पहनती, ऊनी वस्त्र का प्रयोग कम करती।
उनका मेनेजमेन्ट भी स्ट्रॉन्ग था, तभी इतने छोटे समय में साधु की दिनचर्या के साथ 51 संकल्प पूरे किए। मुनि श्री अनिकेत कुमार जी भी गृहस्थ अवस्था में यदा कदा उनसे कनसल्ट करते। घर का कार्य, बाहर से समान लाना, कपडे़-वस्तु आदि खरीदना, सोशियल कनेक्शन को निभाना आदि में वे दक्ष थी। वे धुन की धुनी थी। जो कार्य सोच लिया उसे करके ही विराम लिया, चाहे कितने ही संघर्ष आए। संकल्प भी सामान्य नहीं होते, विशेष ही रहते।
मैने देखा उन्होंने अपने जीवन में तीन व्यक्तियों की ज्यादा सुनी। गृहस्थ में थे तब पहले थे उनके संसारपक्षीय पिता- स्व. सम्पतराज जी छल्लाणी। उनके प्रति उनका आंतरिक स्नेह व सम्मान के भाव थे। कोई भी नया कार्य या निर्णय लेती उनसे परामर्श जरूर लेती व उनके विचारों को नहीं टालती। साध्वी धैर्यप्रभाजी के मन में था मैं भी अपने पिता को दीक्षा की प्रेरणा दूं। भावना होते हुए भी वे दीक्षा नहीं ले पाए। परन्तु साध्वीश्री ने उन्हें संथारे के समय सुस्थिर किया। उन्हें संथारे में अमोह की ओर अग्रसर करवाया।
दूसरे थे- मेरे संसार पक्षीय पिता- स्व. मुनि अनिकेतकुमारजी। वे धुन की धुनी थी, तब भी चाहे वे हजार प्लान्स बनाती परन्तु जब तक मुनिश्री (गृहस्थ में) की रजामंदी नहीं होती वे कार्य नहीं करती। उनके कार्य में मुनिश्री का मार्गदर्शन भी सहायक बनता। जब से दीक्षा ली तब से गुरू ही उनके लिए सब कुछ थे। जब दीक्षा की अनुमति मांगी तब गुरूदेव ने उनसे पुछा कहां रहोगी? उन्होंने कहा- जहां गुरूदेव रखवाएंगे वहां रहुंगी। अनेक संघर्षों के बावजूद भी उन्होंने अपनी ओर से निवेदन नहीं किया कि मैं अमुक के साथ रहुंगी। यहां तक कि बेटियों के लिए भी अर्ज नहीं किया। कुछ अंश में मैं मानती हूं कि मेरा गुरूकुलवास उनकी देन है। तपस्या के दौरान भी उन्हें डर था कि गुरूदेव उनकी तपस्या पर मर्जी कराएंगें या नहीं । चूंकि प्रायः चोले के दिन से साध्वियां आचार्यप्रवर से प्रत्याख्यान करती हैं। साध्वीप्रमुखाश्री जी ने निवेदन किया- गुरूदेव! आंरे तपस्या करणै रो मन है। आचार्य प्रवर ने मुस्कान के साथ स्वीकृति प्रदान की। उस दिन उनके खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कुछ दिन (16) बाद जब वे नीचे उतर कर दर्शन नहीं कर पाई तब आचार्य प्रवर ने आशीर्वाद देते हुए फरमाया- सुखे-सुखे ऊपर ही रहो। आचार्यपव्रवर का आशीर्वाद वास्तव में वे केवल ऊपर ही नहीं और ऊपर चली गई। गुरु निष्ठा इतनी गजब की थी कि हम तीनों को भी दीक्षा की आज्ञा भी उन्होंने दी। जब तेजस्वी प्रभाजी और मुनि कौशल कुमार जी के आज्ञा लेने का प्रसंग आया तब साध्वी धैर्यप्रभाजी ने अनके असमंजस को समाधान देते हुए कहा गुरु को चुनो। गुरु ने भी हम पर अनन्त कृपा कर हमारे माता-पिता कोे दीक्षा दिरा दी। हम सौभाग्यशाली है कि हमें ऐसे पेरेंट्स मिले, ऐसे गुरु मिले।
अंत में कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहती हूं साध्वी काव्यलता जी, साध्वी मीमांसाप्रभा जी का जिन्होंने इस अनुष्ठान में इनका सहयोग दिया, साध्वी हेमलताजी का वर्ग जिन्होंने उनकी सेवा की, सहयोग दिया। साध्वीप्रमुखा जी की वत्सलता, प्रेरणा, प्रोत्साहन ने उन्हें चित्त समाधि पंहुचाई। मैं गुरुदेव से यही आशीर्वाद चाहती हूं कि मैं उनके अधूरे सपनों को पूरा कर सकूं।