इन्द्र की तरह शोभायमान होते हैं आचार्य : आचार्यश्री महाश्रमण
भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी, तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु का 222वां चरमोत्सव दिवस। वर्तमान भिक्षु आचार्यश्री महाश्रमणजी ने फरमाया कि जैन शासन में तीर्थंकर का अध्यात्म प्रवर्तन के संदर्भ में उत्कृष्ट स्थान होता है। नमस्कार महामंत्र के पांच पदों में पहले पद पर अर्हत विराजमान होते हैं। वे चार घाती कर्मों का क्षय कर चुके होते हैं। सिद्ध आठों कर्मों का क्षय कर चुके होते है, फिर भी पांच पदों में पहले अर्हतों को नमस्कार किया गया है।
सिद्ध अशरीरी होते हैं पर अर्हत, आचार्य, उपाध्याय और साधु सशरीर होते हैं, मनुष्य रूप में होते है। चारों ही अमुक्त होते हैं, सकर्मा होते हैं। इस तरह सिद्ध और चार पदों में भिन्नता होती है। अर्हत भी मनुष्य हैं, हम भी मनुष्य हैं, पर मनुष्य-मनुष्य में अन्तर होता है। तीसरे पद में आचार्य को नमस्कार किया गया है। आज भ्रादव शुक्ला त्रयोदशी - एक आचार्य का चरम दिवस है। तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य आचार्य श्री भिक्षु का आज से 221 वर्ष पूर्व सिरियारी में महाप्रयाण हुआ था। जैसे प्रभात काल में सूर्य भरत क्षेत्र को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आचार्य भी प्रकाश देने वाले हो सकते हैं। वे उसी प्रकार शोभायमान होते है, जैसे देवों के मध्य में इन्द्र शोभायमान होता है। आचार्य भी चतुर्विध धर्मसंघ में विराजमान होते हैं। आचार्य संघ के सर्वोच्च होते हैं। तीर्थंकर के बाद दूसरा स्थान आचार्य का होता है। आचार्य तीर्थंकर के प्रतिनिधि कहलाते हैं। जैन शासन में आचार्य का अपना एक स्थान भी है। तेरापंथ धर्मसंघ में तो सर्वोच्च स्थान आचार्य का होता है। इस कारण आचार्य इन्द्र की तरह शोभायमान होते हैं। आचार्य श्रुतधर, शीलवान, बुद्धिमान हो, उनमें शास्त्रीय ज्ञान हो, परम्परा का ज्ञान हो, और भी परिपार्श्व में ज्ञान हो तो बढ़िया बात होती है। अध्ययनशीलता, स्वाध्यायशीलता यथासंभव हो। ज्ञान का पुनरावर्तन होता रहता है तो ज्ञान में नवीनता भी आ सकती है। व्याख्यान देना भी स्वाध्याय होता है।
आचार्य भिक्षु के पास श्रुत संपदा भी थी, आगमिक ज्ञान उनका अच्छा था। वे स्वयं ज्ञानी पुरूष थे, शिष्यों को पढ़ाने का भी काम करते थे, लोगों को भी समझाते थे। आचार्य भिक्षु के ग्रन्थों को हम देखें तो उनका श्रुतज्ञान अच्छा था। ज्ञान-श्रुत के आधार पर बुद्धि का योग चाहिए। श्रुत आधेय है, बुद्धि आधार है। जिसकी खुद की बुद्धि नहीं है, शास्त्र उसको क्या ज्ञान देगा? बुद्धि का प्रकाश होने से ज्ञान विकसित होता है, बात को ग्रहण कर सकता है। आचार्य भिक्षु की श्रुत की पृष्ठ भूमि में प्रतिभा थी, वे बुद्धिमान व्यक्तित्व के धनी थे। आचार्य में बुद्धि अच्छी हो तो निर्णय भी अच्छा कर सकता है। आचार्य के आस पास कुछ साधु-साध्वियां भी बुद्धिमान हो तो आचार्य का कार्य कुछ हल्का हो सकता है। आचार्य में शील संपन्नता और आचार निष्ठा भी हो। सन्त में भक्ति के साथ शक्ति भी हो। मौके पर कुछ कड़ा कहने वाला भी हो।
आचार्यश्री भिक्षु स्वामी के पास भी हेमराज जी, खेतसीजी, भारीमालजी व वेणीरामजी जैसे बुद्धिवन्त संत थे। आचार्यत्व तो क्षयोपशम भाव है, पर सम्पदा पुण्य के योग से मिलती है। आचार्य भिक्षु के जीवन में संघर्ष भी आये पर वे आगे बढ़ते रहे। राजनगर, बगड़ी, केलवा एवं सिरियारी उनसे सम्बन्धित स्थान हैं। उनकी क्रान्ति का एक बिन्दु आचार भी रहा था। आचार्य भिक्षु हमारे जनक थे। उनका अंतिम चतुर्मास सिरियारी में सात ठाणों से हुआ। उस समय सिरियारी में 781 घर श्रद्धा के थे। अंत समय में कुछ अस्वस्थ हुए तो भाद्रवा शुक्ला द्वादशी को अनशन स्वीकार कर लिया और त्रयोदशी को महाप्रयाण हो गया।
अतीत में आचार्यों का एक दशक पूरा हो गया। आचार्य भिक्षु पर कितने गीत रचे गये हैं। सिरियारी में भी आज के दिन धम्म जागरण होती है। हमारे यहां भी धम्म जागरण होती है। आचार्य प्रवर ने महामना भिक्षु की स्मृति में रचित जीत का संगान किया। साध्वी प्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने बताया कि आचार्य भिक्षु के नाम में ही शक्ति है, जो हमें ऊर्जा सम्पन्न बनाती है, और हम सारे कार्यों को सम्पादित कर देती है। मुख्य मुनि महावीर कुमार जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि आचार्य भिक्षु एक ऐसे महान संत थे कि जिनका विराट व्यक्तित्व था। उनके जीवन के पहलुओं को देखते हैं तो उनके अनेक रूप सामने आते हैं। उन्होंने अपनी साधना और अपने व्यक्तित्व-कर्तृत्व के द्वारा ऐसा विराट रूप दिखाया कि हर कोई मन्त्र मुग्ध बन गया। मुनिवृन्द एवं साध्वी वृंद ने पृथक-पृथक रूप से सुमधुर गीत की प्रस्तुति दी। जैन विश्व भारती द्वारा दो पुस्तकें आचार्य भिक्षु तत्व साहित्य-3 व आचार्य भिक्षु आख्यान साहित्य-5 पूज्यवर को समर्पित की गई। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।