नवरात्रि अनुष्ठान को विधिवत मनाकर ऊर्जा सम्पन्न बना जा सकता है

नवरात्रि अनुष्ठान को विधिवत मनाकर ऊर्जा सम्पन्न बना जा सकता है

जैन धर्म का वर्चस्व अहिंसा, संयम और तप से बढ़ा है, इसे हम धर्म की आधारशिला भी कह सकते हैं। अहिंसा, संयम और तप व्यक्ति को मानव से महामानव की और गतिमान करते हैं। वर्तमान में पर्वों का अम्बार सा नजर आता है। अधिकतर पर्व इन तीनों से कम जुड़े नजर आते हैं। मौज मस्ती से व्यक्ति का व्यक्तित्व नहीं निखरता। हमें जो संस्कार मिले हैं उससे आत्मकल्याण के साथ धर्म प्रभावना का क्रम भी बनता है।
नवान्हिक अनुष्ठान प्रतिवर्ष दो बार मनाया जाता है, दोनों ही शुक्ल पक्ष में मनाए जाते हैं। आश्विन शुक्ला और चैत्र शुक्ला पक्ष प्रारम्भ होते ही देश विदेश में जैन-अजैन प्रायः सभी इसे मनाते हैं। तेरापंथ धर्मसंघ के नवमाधिशास्ता आचार्य श्री तुलसी ने कई आयाम दिए उसमें नवरात्रि का भी नवीनीकरण किया। नव ही दिन सूर्योदय से पूर्व जप अनुष्ठान, प्रवचन के समय भी आगमवाणी के साथ लोगस्स के कुछ श्लोक, उनके चरण का सामूहिक जाप, दोपहर में आगम स्वाध्याय, नव ही दिन यथाशक्ति तप का क्रम भी रहता है। इस प्रकार अपने आप को ऊर्जा सम्पन्न बनाया जा सकता है। नव ही दिन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जमीकंद का भी परिहार बताया गया है।हमारा त्याग ही हमारा सौभाग्य बढाता है। हम देखते हैं कि तब से अब तक इस नवान्हिक अनुष्ठान को चारित्र आत्माओं के सान्निध्य में अथवा व्यक्तिगत रूप से भी मनाया जाता है। यह विधि नितांत हिंसा से अहिंसा की ओर, असंयम से संयम की ओर, भोग से त्याग की ओर ले जाने वाली है। हम गुरुदेव के अत्यंत आभारी हैं जिन्होंने नवरात्रि जैसे पावन अनुष्ठान को मनाने की विधि प्रदान कर सबको अध्यात्ममय बना दिया।
आचार्य श्री महाश्रमण जी ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार जो प्रातः सूर्योदय से पूर्व जाप का क्रम था इसे शाम अर्हत वंदना के बाद करके नवरात्रि अनुष्ठान को और व्यापक बना दिया, यह सबके लिए सुगम हो गया। अपेक्षा है कि सभी इस आध्यात्मिक अनुष्ठान का लाभ उठाकर स्वयं को ऊर्जा सम्पन्न बनाने का प्रयास करें।