गृहस्थ जीवन की गाड़ी पर रहे धर्म और मोक्ष का अंकुश : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन प्रभावक आचार्यश्री महाश्रमण ने आयारो आगम पर मंगल देशना प्रदान कराते हुए फरमाया कि जीवन में काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष तत्त्व होते हैं। गृहस्थ जीवन की गाड़ी के दो पहिये काम और अर्थ होते हैं, इस गाड़ी पर धर्म और मोक्ष का अंकुश रहता है तो यह दुपहिया गाड़ी ठीक चल सकती है अन्यथा यह निरंकुश हो जाये तो दुःखों के गर्त में जाकर गिर सकती है। यहाँ काम का अर्थ काम भोग है। इसका साधन है- अर्थ, पैसा। ये दोनों सांसारिक चीजें हो जाती हैं। कोई गृहस्थ अर्थार्जन कर धन का उपयोग काम में करता है, तो कोई दान में भी उसका उपयोग करता है। धन की तीन गतियां होती हैं- दान, भोग और नाश। दान कई प्रवृत्तियों में दिया जा सकता है। जो आदमी धन का न तो दान देता है और न ही भोग करता है तो उस अर्थ का नाश भी हो सकता है। मानव दान कहां देता है, यह विवेक की बात होती है।
जो आदमी अर्थ और काम भोगों में आसक्त है वो तो मानो अपने आप को अमर मानकर बैठा है। वह यह नहीं सोचता है कि मुझे कभी मरना भी है। जो अमर की तरह जीवन जी रहा है वह आसक्ति में डूबा रहता है। अमर दुनिया में कोई नहीं है। निश्चिन्त होकर ना बैठें, काम और अर्थ पर धर्म और मोक्ष का अंकुश रहे। जीवन में ईमानदारी हो, उपभोग में संयम रहे, धन के प्रति आसक्ति न हो, मन में विसर्जन का, त्याग का भाव रहे। गृहस्थ काम और अर्थ का संयम करे। बारह व्रतों को स्वीकार करे, परिग्रह कम करने का प्रयास रहे। साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने कहा कि दुनिया में अच्छाई और बुराई दोनों का अस्तित्व है, पर देखा जाता है कि व्यक्ति का झुकाव बुराई की तरफ ज्यादा होता है। व्यक्ति को दूध बेचने के लिए घूमना पड़ता है, पर मदिरा तो अपनी दुकान पर ही बिकती है। व्यक्ति में सघन मूर्च्छा होती है जो व्यक्ति को बुराई की ओर धकेलती है। साध्वीवर्या श्री ने सम्यक्त्व के पांच लक्षणों में से एक संवेग को विस्तार से समझाया। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमार ने किया।