तेजस्विता का उपयोग विनाश में नहीं बल्कि विकास में करें : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 13 अक्टूबर, 2021
ज्ञान रूपी प्रकाश के प्रदाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारी दुनिया में शक्ति का महत्त्व है, जिसके पास तेज है, शक्ति है, वह व्यक्ति भी एक विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है। तेजस्विता है, फिर आकार आदमी का छोटा है या बड़ा उसका महत्त्व नहीं। तेजस्विता का महत्त्व होता है। संस्कृत श्लोक में कवि ने तीन उदाहरणों से अपनी बात बताई है कि पहला उदाहरण हैहाथी का। विशालकाय हाथी को छोटा सा अंकुश कंट्रोल में कर लेता है। एक छोटा सा दीपक अंधकार को नष्ट कर देता है। एक बड़े पहाड़ को एक छोटा सा वज्र भी चूर-चूर कर देता है। एक ओर विशालता के उदाहरण हैं, दूसरी ओर उनके सामने छोटे-छोटे पदार्थों के उदाहरण हैं। छोटा सा पदार्थ भी बड़े पदार्थों पर हावी होता है। कवि ने निष्कर्ष रूप में कहा है कि जिसमें तेज है, वह बलवान है। बड़ा होने से कोई बलवान हो जाएगा, जरूरी नहीं। ठाणं में तेज का महत्त्व बताया गया है। प्रस्तुत सूत्र में साधु के संदर्भ में और देवता के संदर्भ में तेज की बात बताई गई है। साधु अहिंसा का उपदेश देता है, हिंसा मत करो, विनाश मत करो इसलिए वह माहण होता है। श्रमण यानी तपस्वी। इसलिए साधु श्रमण माहण होता है। एक साधु को तेजोलब्धि प्राप्त हो जाती है। तेजोलब्धि विनाशकारी शक्ति है। वह साधु के पास है। कोई व्यक्ति साधु के पास आकर उसकी अवहेलना ज्यादा कर देता है। हालाँकि कोई ज्यादा अवहेलना कर दे, पर साधु को कुपित नहीं होना चाहिए। ॠषि तो महान प्रसाद-प्रसन्नता वाले होते हैं, होने चाहिए। पर छद्मस्थ है, गुस्सा भी आ जाता है। कभी अहम् की भाषा भी साधु बोल सकता है, कभी छल-प्रवंचना भी कर सकता है। लब्धि का होना एक बात है, उपयोग क्या करना वह अलग बात है। कोई व्यक्ति साधु की अत्यासातना करने लगा। साधु कुपित हो गया, वो तेजोलब्धि का उपयोग उस व्यक्ति पर करता है, उस पर तेज का प्रक्षेप करता है। तेज निकलकर अवहेलना करने वाले व्यक्ति पर जाता है, उसको प्रभावित कर प्रताड़ित करता है और उस आदमी को साधु तेज से अंत कर डालता है। हो सकता है, ऐसा काम साधु कर लेता है। पंचेन्द्रिय प्राणी की हत्या कोई साधु कर दे तो हम तो व्यवहार में उसका साधुपन खत्म मान लेते हैं। नई दीक्षा ले तो बात ठीक है। तेजोलब्धि से खत्म कर देना एक बात है, ऐसी दस बातें हैं। दूसरी बात हैमान लो साधु की अवहेलना किसी ने कर दी, परंतु कोई देवता साधु के मित्र या किसी रूप में है, वो प्रभावित हो कुपित हो जाता है कि मेरे महाराज की अवहेलना करता है, तो वो देवता तेज फेंकता है। वह तेज उस अवहेलना करने वाले को प्रताड़ित कर उसे भस्म कर देता है। तीसरी बात है, कोई आदमी अत्यासातना करता है, तो साधु और देवता दोनों कुपित होकर उसको मारने का संकल्प करके तेज फेंकते हैं और उसको भस्म कर देते हैं। चौथी बात है कि व्यक्ति साधु की अत्यासातना करता है तो साधु उस पर तेज फेंकता है, तो उस आदमी के शरीर में फोड़े हो जाते हैं। फोड़े फूटते हैं, फिर उसे तेज से भस्म कर दिया जाता है। आदमी खत्म हो जाता है। पाँचवाँ प्रकार हैइसी प्रकार साधु नहीं देवता कुपित होकर तेज फेंकता है। उससे फोड़े होते हैं, फिर वो फूटते हैं और फिर वो आदमी खत्म हो जाता है। छठा प्रकार है कि देव और साधु दोनों कुपित हो तेज फेंकते हैं, उस आदमी के फोड़े होते हैं, फिर वे फूट जाते हैं। तेज से उसे भस्म कर दिया जाता है। सातवीं बात है कि वो आदमी साधु को अवहेलित करता है, साधु तेज उस पर फेंकता है। उस आदमी के शरीर में फोड़े उत्पन्न होते हैं, फोड़े फूटते हैं, फिर फुंसियाँ निकलती हैं। वे फूटती हैं। फिर वे फूटकर उसे तेज से भस्म कर देती हैं। आठवीं बात है देव कुपित हो जाता है और नौवीं बात में साधु और देव दोनों कुपित हो तेज फेंकते हैं। उस आदमी के फोड़े होते हैं। फोड़े फूटते हैं, तो फुंंसियाँ हो जाती हैं। फुंंसियाँ फूटकर वो आदमी को तेज से भस्म कर देती हैं। दसवाँ प्रकार थोड़ा सा विशेष प्रकार है। इसमें उल्टी बात हो जाती है। किसी आदमी ने साधु अवहेलना-अत्यासातना कर दी। वो साधु कुपित हो जाता है। वो साधु उस पर तेज फेंकता है। परंतु सामने वाले आदमी के पास भी लब्धि है। वो वापस साधु पर तेज फेंकता है। परंतु वह तेज साधु में घुस नहीं पा रहा है। वो तेज साधु के ऊपर-नीचे, आगे-पीछे प्रतिक्षणा करता है। वह तेज आकाश में चला जाता है। वहाँ से लौटकर साधु की तेजस्विता से प्रतिहत होता है। फिर वह लौटता है, लौटकर वह साधु पर तो प्रभाव डाल नहीं पाया। तेज थक गया। थककर वो तेज जिसने फेंका था उसी के पास जाएगा। उसी के शरीर में प्रवेश करके उस आदमी को भस्म कर देता है। आदमी की तेजोलब्धि भी खत्म और आदमी भी खत्म हो जाएगा। जो तेजोलब्धि से दूसरे का विनाश करना चाहता है, तो कभी-कभी उसका विनाश उसी तेज से हो सकता है। इस तरह ठाणं में बताया गया है, किस तरह साधु भी दूसरे का विनाश करने का प्रयास कर लेता है। इस सारे प्रकरण से हमें दो बातों की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है कि जिसके पास तेज है, वो विशिष्टता है। दूसरी बात है कि तेजस्विता से किसी को भस्म करने का, खत्म करने का, किसी का विध्वंस करने का, किसी का विनाश करने का प्रयास साधु को तो करना ही नहीं चाहिए। दूसरों को भी दुर्भावना से किसी के विनाश का प्रयास नहीं करना चाहिए। यह तेजोलब्धि एक तरह से तांत्रिक विद्या वाली सी मिलती-जुलती बात है। तांत्रिक चीजों से किसी का विनाश करने का प्रयास न करें। दुर्भावना से तंत्र-मंत्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए। शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। नवरात्र का समय है। हमें अपने मन में यह भावना रखनी चाहिए कि किसी का बुरा तंत्र-मंत्र-यंत्र, जादू-टोना आदि-आदि के द्वारा किसी का अनिष्ट करने का प्रयास हमें अपने जीवन में नहीं करना चाहिए। प्रवचन से पूर्व पूज्यप्रवर ने अनुष्ठान करवाया। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि साधक रस के आहार का उपयोग नहीं करता। वह अरस आहार करता है। वह तो आहार जीवन निर्वाह करने और शरीर को भाड़ा देने के लिए करता है। रस परित्याग का महत्त्व समझाया। इस परित्याग से इंद्रिय विषयों का संयम हो सकता है। वे गुरु धन्य हो जाते हैं, जिन्हें अच्छे शिष्य मिल जाते हैं। यह एक प्रसंग से समझाया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि गुरु अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञानी रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं।