संबोधि
३. सद्यः प्रातः समुत्थाय, स्मृत्वा च परमेष्ठिनम्।
प्रातः कृत्यान्निवृत्तः सन्, कुर्यादात्मनिरीक्षणम्॥
सवेरे जल्दी उठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण कर, शौच आदि प्रातः कृत्य से निवृत्त होकर मनुष्य आत्म-निरीक्षण करे।
आत्म-निरीक्षण के लिए एक कवि ने कहा है-'सूर्य जीवन का एक भाग लेकर चला जा रहा है। उठो और देखो, आज कौन सा सुकृत काम किया है।' यह धर्म का एक अंग है। सबके लिए इसकी अपेक्षा है। किन्तु एक धार्मिक व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है। आत्मदर्शन के बिना वृत्तियों का परिमार्जन नहीं होता। इसके लिए तीन चिंतन हैं :
१. मैंने क्या किया है?
२. मेरे लिए क्या करना बाकी है?
३. ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं नहीं कर सकता?
जैसे शरीर के लिए आवश्यक किए जाते हैं वैसे आत्मा के लिए भी होने चाहिए। एक विचारक ने कहा है-'मनुष्य शरीर को खुराक देता है, किन्तु आत्मा को नहीं।' आत्मा को बिना भोजन दिए मनुष्य का जीवन अंत में अर्थहीन सिद्ध होता है। उसमें रस उत्पन्न नहीं होता। आदमी करीब-करीब मरा हुआ जीता है। इसीलिए यहां कहा गया है कि अपने को देखो, जानो।
मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? क्या है जीवन का उद्देश्य ? क्या मैं उसकी पूर्ति का प्रयत्न कर रहा हूं? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो स्वयं से पूछने को हैं। उत्तर की जल्दी नहीं करना है, प्रश्नों की प्यास बढ़ानी है।
४. सामायिकं प्रकूर्वीत, समभावस्य लब्धये।
भावना भावयेत् पुण्याः, सत्संकल्पान् समासृजेत्॥
समभाव की प्राप्ति के लिए सामायिक करे, आत्मा को पवित्र भावनाओं से भावित करे और शुभ संकल्प करे।
संकल्प का अर्थ है-दृढ़ निश्चय। हम क्या है? अपने संकल्पों से भिन्न और कुछ नहीं हैं। जैसे हम संकल्प करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। अच्छे संकल्प अच्छा बनाते हैं, बुरे संकल्प बुरा। मनुष्य अच्छा बनने के लिए बुरे संकल्पों के स्थान पर अच्छों को स्थान दे। मैं दीन हूं, दुर्बल हूं, अज्ञ
हूं, रोगी हूं, दुःखी हूं, अभागा हूं आदि हीन संकल्प मनुष्य को वैसा ही बना देते हैं। यदि इनके
स्थान पर मनुष्य पवित्र संकल्पों को संजोए तो वह स्वस्थ, सशक्त, विज्ञ, सुखी और सौभाग्यशाली बन सकता है।
'मेरा मन पवित्र संकल्प वाला हो। हम दीन बन कर न जिएं। कार्य करते हुए हम सौ वर्ष तक जिएं' ये क्या है जो हजारों वर्षों से संकल्प का महत्त्व समझाते आ रहे हैं। आज वैज्ञानिकों ने मानस की अपार क्षमता को परखा है और वे कहते हैं- 'तुम अपने संकल्प से भिन्न कुछ नहीं हो।' श्रावक आत्म-शोधन करता हुआ संकल्पवान बने। उसे क्या करना है और क्या होना है, भगवान् ने इसका जो उत्तर दिया वह इस अध्याय के दसवें श्लोक में है।
५. स्थैर्यं प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने।
तीर्थसेवा भवन्त्येता, भूषाः सम्यग्दृशो ध्रुवम्॥
धर्म में स्थिरता, प्रभावना-धर्म का महत्त्व बढ़े वैसा कार्य करना, धर्म या धर्म-गुरु के प्रति भक्ति रखना, जैन शासन में कौशल प्राप्त करना और तीर्थसेवा-चतुर्विध संघ को धार्मिक सहयोग देना-ये सम्यक्त्व के पांच भूषण हैं।