बंधन में रहते हुए भी मुक्त व्यक्ति होते हैं कुशल : आचार्य श्री महाश्रमण
तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम् अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने 'आयारो' आगम आधारित मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि इस संसार में जीने वाला प्राणी बंधन युक्त होता है, लेकिन ऐसे भी मनुष्य होते हैं जो बंधन में रहते हुए भी एक सीमा तक बंधन मुक्त होते हैं। जो कुशल होते हैं, वे बंधन में भी होते हैं और मुक्त भी होते हैं। एक शब्द है—जीवन मुक्त। जीते हुए भी मुक्त होना, मुक्त रहना। जो व्यक्ति अतीत में नहीं खोता, भविष्य की कल्पना नहीं करता, और वर्तमान में जो कुछ प्राप्त है, उसमें समता और तटस्थता बनाए रखता है, यह जीवन मुक्त व्यक्ति का लक्षण है। जो सुविहीत होते हैं, जिन्होंने मद और मदन को जीत लिया, जो मानसिक, वाचिक और कायिक विकारों से मुक्त हैं, और जो आशा-लालसा से निवृत्त हो गए हैं, ऐसे शरीरधारी मनुष्य के लिए मानो यहीं मोक्ष हो गया है।
जो कुशल और अप्रमत साधु होते हैं, वे आसक्ति में नहीं पड़ते, पर प्रवृत्ति करते हैं। वे प्रवृत्ति से मुक्त नहीं होते और आसक्ति से बंधे नहीं रहते। वीतराग साधु साम्परायिक बंधन से बंधे नहीं होते और ऐर्यापथिक से मुक्त नहीं होते। केवल ज्ञानी साधु चार घाति कर्मों से बंधे नहीं होते और चार अघाति कर्मों से मुक्त नहीं होते। वे साधना में कुशल होते हैं। अध्यात्म जगत में कुशल होना, एक उच्च भूमिका पर आरूढ़ होना है। मानव जीवन में 'कुशल' शब्द का उपयोग विभिन्न प्रकार के कौशलों के लिए किया जाता है। कोई व्यक्ति किसी कार्य, प्रबंधन, लिपिकला, या पाककला में कुशल होता है। कार्य कौशल का विकास एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। साधु-साध्वियों में भी सुंदर लेखनी वाले होते हैं, जबकि कुछ की लेखनी में अशुद्धियाँ हो सकती हैं। शुद्ध लेखन लिपिकला का अहम हिस्सा है। भाषण देने और गाने में भी कुशलता महत्वपूर्ण होती है। वक्ता की स्पष्ट भाषा और अच्छा ज्ञान लोगों को प्रभावित करते हैं, जबकि एक कुशल गायक श्रोताओं के लिए तृप्तिदायक होता है।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने उद्बोधन देते हुए कहा कि मनुष्य के पास दो बड़ी संपदाएं होती हैं—बाहरी संपदा और भीतरी संपदा। बाहरी संपदा से भीतरी संपदा अधिक महत्वपूर्ण होती है, पर वह दिखाई नहीं देती। मनुष्य के पास ज्ञान, चिंतन, विवेक, निर्णय करने की शक्ति और परिष्कृत शक्ति होती है। इसके अलावा, आध्यात्मिक विकास भी मनुष्य के पास एक बहुत बड़ी संपदा है। त्याग की संपदा भी मनुष्य के पास होती है। प्रत्याख्यान के माध्यम से जीव आश्रव के द्वार को रोक सकता है। बहुश्रुत परिषद सदस्य मुनि उदितकुमारजी ने सूरत में हुई तपस्याओं का उल्लेख करते हुए दीपावली पर तेला अनुष्ठान करने की प्रेरणा दी। पूज्यवर ने तपस्याओं का प्रत्याख्यान करवाया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।