ज्ञान और क्रिया के योग से ही संभव है मोक्ष : आचार्यश्री महाश्रमण
अध्यात्म साधना के शिखर पुरुष, आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आज्ञा का पालन करने वाला व्यक्ति प्रशंसनीय होता है। जो आज्ञा का पालन नहीं करता, वह निर्धन होता है और अपनी अच्छी प्रस्तुति में भी ग्लानि का अनुभव कर सकता है। जो तीर्थंकर की आज्ञा का पालन करता है, वह धनवान और चरित्र संपन्न होता है। वह अपना प्रतिपादन करता है और शुद्ध मार्ग दिखा सकता है। हमें ज्ञान के साथ आचार को भी महत्व देना चाहिए। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जब ज्ञान और आचार का संयोजन होता है, तो एक दृष्टि से परिपूर्णता प्राप्त हो सकती है। पहले तीर्थंकर की आज्ञा, धर्म और अहिंसा का ज्ञान होना चाहिए, फिर उनका आचरण किया जाए, तभी सम्यक् पालन हो सकता है। ज्ञान है पर आचार नहीं, तो वह पंगु के समान है। ज्ञान नहीं है, पर आचार है, तो वह अंधे व्यक्ति के समान है। जैन दर्शन कहता है कि जब ज्ञान और क्रिया का योग होता है, तभी मोक्ष संभव होता है।
अहिंसा को जानने पर ही उसका पालन किया जा सकता है। जिस साधना को करना है, पहले उसका ज्ञान होना आवश्यक है, तभी साधना की जा सकती है। इसलिए ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। ज्ञान और क्रिया के माध्यम से ही कार्य पूरा हो सकता है। ज्ञान को जानने के बाद उसमें रुचि और आकर्षण उत्पन्न होगा, तभी उसका आचरण किया जा सकेगा। इसलिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप—ये चारों मोक्ष प्राप्ति की साधना में आवश्यक हैं। इन चारों के बाद जो विशेष स्वाध्याय, ज्ञान, सेवा, या तप-जप में संलग्न होता है, वह स्वाध्यायवादी, ज्ञानवादी, सेवावादी या तपस्वी हो सकता है। ये सभी निर्जरा के प्रमुख मार्ग हो सकते हैं। सबकी अपनी-अपनी रुचि हो सकती है, लेकिन मूल न्यूनतम ज्ञान और क्रिया आवश्यक है। उसके बाद व्यक्ति विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) बन सकता है। विभिन्न दर्शनों की बातों को हमें नयवाद से समझने का प्रयास करना चाहिए। अनेकांतवाद से दृष्टिकोण को समझा जा सकता है। प्रवचन से पूर्व, पूज्यवर ने आध्यात्मिक अनुष्ठान करवाया। आयंबिल का सामूहिक अनुष्ठान कर रहे लगभग एक हजार से अधिक श्रावक-श्राविकाओं ने श्रीमुख से आयंबिल का प्रत्याख्यान स्वीकार किया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।