धर्म है उत्कृष्ट मंगल
अठारह पापों में दूसरा पाप है- मृषावाद। श्रीमज्जयाचार्य द्वारा संरचित 'झीणी चर्चा' में यह स्पष्ट किया गया है कि जिस पूर्वबद्ध कर्म के उदय से व्यक्ति झूठ बोलता है वह मृषावाद पापस्थान है। झूठ बोलना मृषावाद क्रिया अथवा मृषावाद आश्रव है और मृषा बोलने से जो पाप कर्म का बन्ध होता हैं वह मृषावाद पाप है।
'दसवेआलियं' सूत्र में मृषा के चार कारण बतलाए गए हैं क्रोध, लोभ, भय और हास्य। इन चार भावों के कारण व्यक्ति मृषावाद का प्रयोग करता है। सलक्ष्य मृषावाद के ये चार कारण बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त कभी-कभी अज्ञानतावश या प्रमादवश भी मृषावाद का प्रयोग हो जाता है। कहना कुछ चाहिए था और व्यक्ति भूल अथवा जल्दबाजी के कारण अनचाहे ही कुछ अन्यथा कह डालता है। जैसे अहिंसा महाव्रत में तीन करण और तीन योग से हिंसा का प्रत्याख्यान होता है। वैसे ही सत्य महाव्रत में तीन करण और तीन योग से मृषावाद का प्रत्याख्यान होता है। चार कारणों में से प्रत्येक के साथ तीन करण और तीन योग को जोड़ने से नौ-नौ भंग बन जाते हैं। 9 x ४ = ३६ भंग सत्य महाव्रत के बन जाते हैं। सत्य की महिमा में यहां तक कहा गया है–
साच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप।
जाके हिरदै साच है ता हिरदै प्रभु आप।।
सत्यभाषा सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की होती है। सावद्य शब्द का सन्धि विच्छेद इस प्रकार होता है-स+अवद्य। स यानी सहित और अवद्य यानी पाप। पापसहित को सावद्य कहा जाता है। इससे ठीक उल्टा अर्थ निरवद्य का होता है। निर् + अवद्य निर् यानी रहित, अवद्य यानी पाप। पापरहित को निरवद्य कहा जाता है। इसके लिए 'अनवद्य' शब्द का प्रयोग भी होता है। सत्य में शक्ति होती है। राग-द्वेष कृश हुए बिना सम्यग् सत्यभाषण का व्रत नहीं हो सकता।
नदी के किनारे पर एक स्कूल था। उसमें पांच सौ विद्यार्थी पढ़ते थे। उससे सटा हुआ था एक राजमहल। उसके पीछे की ओर था एक बगीचा। उसमें आम के पेड़ थे। एक दिन कुछ बच्चे खेलने के लिए बगीचे में गए। उन बच्चों में चौथी कक्षा का विद्यार्थी शशी भी था। वह बहुत होशियार और सच्चाई में विश्वास रखने वाला था। उसने पके हुए आमों को हवा में हिलोरें खाते देखा। उसका मन ललचा गया। उसने एक पत्थर उठाया और आम के पेड़ की ओर फेंका। उसने पत्यर को इतनी तेजी के साथ फेंका कि वह सीधा राजमहल में चला गया। अपने आवास-स्थल पर पत्थर का गिरना राजा को बहुत अखरा। उसने पता लगाने के लिए दो सिपाहियों को भेजा। उन्हें आते देखकर सारे बच्चे नौ दो ग्यारह हो गए। शशी शान्त-मुद्रा में वहीं खड़ा रहा। सिपाही उस के पास आए और उससे पूछा-बच्चे! अभी पत्थर किसने फेंका था?
शशी– साहब! मैंने ही फेंका था।
सिपाही– चलो, तुम्हें राजा साहब बुला रहे हैं। वे तुम्हें पूछेंगे कि पत्थर किसने फेंका। तब तुम क्या जवाब दोगे?
शशी– मैं कहूंगा कि मैंने फेंका था।
सिपाही– सच बोलोगे तो राजा तुम्हें दण्ड देंगे।
शशी– देंगे तो दे देंगे। गलती होने पर, वे दण्ड नहीं देंगे तो कौन देगा?
सिपाही– आज सच्चाई का जमाना नहीं है। तुम कह देना कि पत्थर फेंकने वाला लड़का भाग गया। तुम बच जाओगे।
यह बात शशी को बहुत बुरी लगी। ये सिपाही मुझे झूठ बोलना सिखा रहे हैं, पर मैं कभी झूठ नहीं बोलूंगा।
सिपाहियों ने शशी को राजा के सामने खड़ा कर दिया। राजा ने पूछा- पत्यर किसने फेंका? शशी ने सारी बात सच-सच राजा को बता दी। उसकी सच्चाई से राजा गद्गद् हो गया। राजा ने उसे अपनी गोद में लिया और प्यार के साथ पूछा-तुम सच कैसे बोले? क्या तुम्हें डर नहीं लगा? यह सत्यवादिता तुमने कहां से सीखी?
शशी– राजन्! मेरी मां ने मुझे सीख दी थी 'बेटा! सत्य का फल सदा अच्छा होता है इसलिए सदा सच बोलो।' मैं अपनी मां की सीख को सदा याद रखता हूं। शशी की सच्चाई ने राजा का मन मोह लिया। उसके कोई पुत्र नहीं था। उसने शशी को युवराज बनाने का निश्चय कर लिया। झूठ की सीख देने वाले उन सिपाहियों ने सशर्म एक दिन देखा- आज राजा ने शशी को अपना युवराज घोषित कर दिया है।