सुखद वृद्धावस्था के लिए करें पूर्व तैयारी : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन भास्कर आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम वाणी की वर्षा करते हुए फ़रमाया कि प्राणी जन्म लेता है, जीवन जीता है और अंत में मृत्यु को प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म लेता है, पहले गर्भ में रहता है, फिर बाहर आता है। यदि आयुष्य लंबा है, तो उसे बचपन, कैशौर्य, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था के अनेक चरणों से गुजरना पड़ता है। संक्षेप में, बचपन, जीवन, और बुढ़ापा सभी के जीवन का हिस्सा होते हैं। बचपन का उपयोग कैसे किया जाए, युवावस्था में कैसे रहा जाए, इस पर विचार करना चाहिए। बचपन विद्यार्जन का समय है। चार आश्रमों की व्यवस्था के अनुसार, जीवन को चार भागों में बांटा गया है। विद्या प्राप्ति जीवन का महत्वपूर्ण कार्य है। विद्या के साथ अच्छे संस्कार भी जीवन में आ जाएं तो किशोरावस्था सफल हो सकती है। यह अर्जन और ग्रहण करने का समय है। युवावस्था का सदुपयोग करना आवश्यक है, क्योंकि इस अवस्था में गलत रास्ते पर चलने से पतन भी संभव है। कुछ लोग बाल्यावस्था में ही संन्यास का मार्ग अपना लेते हैं। विरक्ति आने पर संन्यास की ओर बढ़ जाना चाहिए।
यदि कोई युवावस्था में साधु बन गया है, तो धर्म प्रचार में लगना चाहिए, और गृहस्थ है तो सद्विचार और सदाचार का पालन करना चाहिए। प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति स्थिरता प्राप्त करता है, और 70 वर्ष के बाद वृद्धावस्था का आरंभ होता है। इसके बाद वह धार्मिक-आध्यात्मिक कार्यों में अपने जीवन को लगाता है। संन्यास का कुछ अंशों में पालन करते हुए जीवन शैली में परिवर्तन लाना चाहिए।
जन्म लेना, जीवन जीना और फिर एक दिन जीवन यात्रा का समापन होना - यह एक क्रम है। आत्मा शाश्वत है, जबकि शरीर नश्वर है। आत्मा पहले भी थी और आगे भी रहेगी। प्राणी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। मृत्यु और जन्म के बीच एक ऐसी स्थिति बनती है, जिसके कारण पिछले जन्म की स्मृति समाप्त हो जाती है। ध्यान और योग की गहराई में जाकर पूर्वजन्म को देखा जा सकता है। बुढ़ापे की तैयारी पहले से करनी चाहिए ताकि वृद्धावस्था सुखद हो। वृद्धावस्था में ध्यान, तप, स्वाध्याय और संयम का अभ्यास करते रहना चाहिए। साधुजन भी वृद्धावस्था में सक्रिय रहकर सेवा में योगदान दे सकते हैं। बुढ़ापे को समझें और उसे स्वाभाविक रूप में स्वीकारें। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध विद्या भारती के महामंत्री अवनीश भटनागर ने पूज्यवर के दर्शन कर अपनी भावना अभिव्यक्त की। सचिन ज्ञानशाला ने अपनी प्रस्तुति दी। संथारा साधिका स्व. मोहनीदेवी बरड़िया के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘जीवन झरमर’ को उनके पारिवारिक सदस्यों द्वारा आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित किया गया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।