राग और द्वेष दो किनारे, पर मध्यस्थ रहने का करें प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने 'आयारो आगम' वाणी का निर्झर बहाते हुए फ़रमाया कि पाप कर्म और पुण्य कर्म, दोनों का बंध होता है। पाप कर्म के बंध का मुख्य कारण मोहनीय कर्म होता है। वहीं, पुण्य कर्म का बंध तब होता है जब मोहनीय कर्म का अभाव होता है और नाम कर्म के उदय से पुण्य कर्म का बंध हो जाता है। पुण्य कर्म के बंध के लिए मोहनीय कर्म का निष्प्रभावी होना आवश्यक है, चाहे वह क्षय या क्षयोपशम द्वारा हो। राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। जब राग-द्वेष समाप्त हो जाते हैं, तो कर्म का बंध सर्वथा समाप्त हो जाता है या केवल नाम मात्र रूप में रहता है। वीतराग पुरुष में राग और द्वेष नहीं होते। मनोज्ञ शब्द, रूप आदि के कारण व्यक्ति राग में जा सकता है, और अमनोज्ञ शब्द, रूप आदि के कारण द्वेष में जा सकता है।
ग्यारहवें गुणस्थान का वीतराग उपशांत मोह वीतराग होता है, जिसमें राग पूरी तरह समाप्त नहीं होता और दुबारा उभर सकता है। उपशांत मोह वीतराग अस्थायी वीतराग होता है, जबकि क्षीण मोह वीतराग स्थायी वीतराग होता है। आठवें गुणस्थान से दो मार्ग निकलते हैं - उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी का साधक आठवें से नौवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ सकता। वह ग्यारहवें से वापस नीचे आ जाता है, जैसे बंद गली में प्रवेश कर लौटना पड़ता है। क्षपक श्रेणी का मार्ग अपनाने वाला साधु आठवें से नौवें-दसवें होते हुए ग्यारहवें को लांघकर बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है। ग्यारहवें गुणस्थान का वह स्पर्श नहीं करता और आगे तेरहवें में केवलज्ञानी बन जाता है।
ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उदय नहीं होता और कोई बंधन नहीं होता, लेकिन भीतर मोहनीय कर्म की सत्ता बनी रहती है। जबकि क्षीण मोह वाले के पास मोहनीय कर्म की सत्ता नहीं रहती और वह हमेशा के लिए अमोह हो जाता है। हमें भी राग-द्वेष को कमजोर करने का प्रयास करना चाहिए। मुमुक्षु और गृहस्थों को भी राग-द्वेष को कम करने का प्रयास करना चाहिए। पदार्थों के प्रति आकर्षण नहीं होना चाहिए और विरक्ति का भाव रखना चाहिए।
मन में समाधि का भाव होना चाहिए। दूसरों को दुःखी देखकर सुखी नहीं होना चाहिए और दूसरों को सुखी देखकर दुःखी नहीं होना चाहिए। राग और द्वेष दो किनारे हैं। हमें मध्यस्थ रहना चाहिए, न राग की ओर झुकें, न द्वेष की ओर। जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियाँ आ सकती हैं, लेकिन हमें समता रखनी चाहिए। राग-द्वेष हमारे भीतर के संस्कार हैं। जैसे-जैसे भीतर धर्म की स्थिति मजबूत होती है, बाहरी पदार्थों के प्रति राग-द्वेष की भावना क्षीण होती जाती है। किशोर मंडल और कन्या मंडल सूरत ने चौबीसी गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।