आसक्ति के बिना अच्छे भाव से किया गया पुरुषार्थ होता है उत्तम : आचार्यश्री महाश्रमण
ज्ञान चेतना के स्रोत आचार्य श्री महाश्रमणजी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए कहा कि आत्मा की दो अवस्थाएँ होती हैं - एक सकर्म अवस्था और दूसरी अकर्म अवस्था। सम्पूर्ण अकर्म अवस्था में सिद्ध भगवान होते हैं, क्योंकि उनमें आठों कर्मों में से कोई भी कर्म नहीं जुड़ा होता। बाकी आत्माओं में आंशिक अकर्म अवस्था होती है, जो तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान पर होती हैं। इन गुणस्थानों में केवलज्ञानी आत्माओं के चार घाती कर्म समाप्त हो जाते हैं, जबकि अघाती कर्म शेष रहते हैं। केवलज्ञानी मनुष्य जहाँ अकर्म अवस्था में होते हैं, वहीं दूसरी ओर अघाती कर्मों की दृष्टि से वे सकर्मा भी होते हैं। बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म समाप्त हो जाता है। मोहनीय कर्म के अभाव के कारण बारहवें गुणस्थान की आत्मा एक सीमा तक अकर्मा होती है। इस प्रकार, अकर्म अवस्था को तीन रूपों में देखा जा सकता है: सिद्ध भगवान पूर्णतया अकर्मा, तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले केवली जीव चार घाती कर्मों की दृष्टि से अकर्मा, और बारहवें गुणस्थान वाले जीव मोहनीय कर्म की दृष्टि से अकर्मा होते हैं।
कर्म शब्द का दूसरा अर्थ है - प्रवृत्ति, पुरुषार्थ। वह भी कर्म है। पुरुषार्थ करना उत्तम होता है, पर हमें अपुरुषार्थ तक पहुँचना चाहिए। पुरुषार्थ एक रास्ता है, जो अपुरुषार्थ की ओर ले जाता है। चौदहवें गुणस्थान वाले पूर्णतया अकर्मा होते हैं। उनके योगों में कोई प्रवृत्ति नहीं होती, वे अप्रयत्न और अपुरुषार्थी होते हैं। केवली दो प्रकार के होते हैं - सयोगी केवली और अयोगी केवली। यदि कुछ प्राप्त करना है तो उत्थान, पुरुषार्थ, कर्म और वीर्य से प्रयास करना चाहिए। निढाल होकर आलसी नहीं बनना चाहिए। पुरुषार्थ से ही अपुरुषार्थ की स्थिति प्राप्त होती है। कर्म वर्गणा के पुद्गल आत्मा से चिपके होते हैं। व्यक्ति को निष्काम कर्म करना चाहिए, अर्थात आत्मशुद्धि के लिए कर्म करना। निर्जरा के दो भेद होते हैं - सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा। अकाम निर्जरा सकाम निर्जरा की अपेक्षा बहुत श्रेष्ठ होती है। आसक्ति के बिना अच्छे भाव से किया गया पुरुषार्थ उत्तम होता है।
जो अकर्म युक्त है, उसके लिए कोई व्यवहार नहीं है। उनके लिए कोई नाम-संज्ञा नहीं है। जो जिस आसन में सिद्ध होता है, उसकी आत्मा उसी रूप में सिद्धलोक में स्थित हो जाती है। पूज्यप्रवर ने प्रेरणा देते हुए फ़रमाया कि मुमुक्षु और वैरागी भाई-बहनों को चौविहार करने, ध्यान करने, नाश्ते से पहले माला फेरने का पुरुषार्थ करना चाहिए। संस्कृत व्याकरण का भी ज्ञान करें और इसे कंठस्थ करें। जब ज्ञान का चिंतन होता रहता है, तो वह सुरक्षित रहता है। कुछ प्रयास करेंगे, तभी कुछ प्राप्त कर पाएंगे। साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने मंगल उद्बोधन में कहा कि जो मनुष्य ज्ञान से अज्ञान की ओर और प्रकाश से अंधकार की ओर जाता है, उसका सोना ही उचित है। सुख-शय्या में सोना भी विकास की प्राप्ति का मार्ग हो सकता है। जैसे-जैसे अपेक्षाएँ बढ़ती हैं, व्यक्ति आनंद की राह से भटक जाता है। इच्छाओं का सीमाकरण करें। सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए इस भौतिक जगत से मन को मोड़ना होगा। आंतरिक आनंद प्राप्त करने के लिए चार सुख-शय्याएँ बताई गई हैं - निग्रन्थ प्रवचन में दृढ़ श्रद्धा, जो प्राप्त है उसमें संतोष करना, इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव और वेदना में समता भाव रखना। हमें ऐसी सुख-शय्या पर सोना चाहिए और इन जागरूकता के सूत्रों को जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। लोंगोवाल यूनिवर्सिटी, पंजाब के प्रोफेसर प्रदीप जैन ने अपने विचार प्रस्तुत किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमारजी ने किया।