संबोधि
दूसरा आदर्श उसके सामने मुनि का है, जिसका जीवन निश्चित, निराबाध, निर्द्वन्द्व और निरापद है। एक कवि ने गाया है- जिस साधु-जीवन में न राज्य-भय है, न चोरों का डर है, न आजीविका भय है और न किसी के वियोग का भय है, वह ऐहिक और पारलौकिक दोनों जीवन के लिए कल्याणकारी है। वहां समस्त असत् प्रवृत्तियों का निरोध होता है। आत्मा को निकट से देखने के लिए यह अति उत्तम जीवन है। अतः वह कहता है... कब मैं मुंड हो, गृहस्थपन छोड़, साधुव्रत स्वीकार करूंगा।
शरीर सब कुछ नहीं है। आत्म-धर्म के सामने यह गौण है। भोजन से शरीर टिकता है। शरीर साधन है। साध्य सिद्धि के लिए उसे भोजन दिया जाता है। जब वह जीर्ण हो जाता है, साध्य में सहायक नहीं होता, तब उसका त्याग किया जाता है। शरीर के प्रति जो कुछ लगाव होता है उससे हटकर साधक सम बन जाता है। फिर उसे मृत्यु का डर नहीं सताता। शरीर छूटता है, चाहे साधक उसे छोड़े या साधक को वह छोड़े। इसलिए तीसरा संकल्प है- कब में समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करूंगा।
११. श्रमणोपासना कार्या, श्रवणं तत्फलं भवेत्।
ततः सञ्जायते ज्ञानं, विज्ञानं जायते ततः॥
श्रमणों की उपासना करनी चाहिए। उपासना का फल धर्म-श्रवण है। धर्म-श्रवण से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान उत्पन्न होता है।
१२. प्रत्याख्यानं ततस्तस्य, फलं भवति संयमः।
अनास्रवस्तपस्तस्माद्, व्यवदानञ्च जायते॥
विज्ञान का फल है प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का फल है संयम। संयम का फल है अनासव कर्म-निरोध। अनासव का फल है तप और तप का फल है व्यवदान-कर्म-निर्जरण।
१३. अक्रिया जायते तस्मान्निर्वाणं तत्फलं भवेत्।
महान्तं जनयेल्लाभं, महतां संगमो महान्॥
व्यवदान का फल है अक्रिया-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध और अक्रिया का फल है निर्वाण। इस प्रकार महापुरुष के संसर्ग से बहुत बड़ा हित होता है।