धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

एक चारण कवि एक सेठ के पास गया और उसने सेठ को प्रशंसाभरी कविताएं पढ़ीं। सेठ का मन अपनी प्रशंसा सुनकर प्रफुल्लित हो गया। उसने कहा चारणजी! आप कल आना। मैं आपको एक बोरी गेहूं दूंगा। दूसरे दिन वह चारण सेठ के पास गया और गत दिवस की बात सेठ को याद दिलाई। तब सेठ ने कहा चले जाओ यहां से। बोलकर तुमने मुझे राजी कर दिया और बोलकर मैंने तुमको राजी कर दिया। लेना-देना कुछ नहीं है। इस प्रकार का झूठा आश्वासन एक बार भले सामने वाले व्यक्ति को राजी कर दे किन्तु बाद में वह दुःख देने वाला हो सकता है। इस प्रकार की भाषा प्रिय भाषा हो सकती है किन्तु सत्यविहीन होने से उसे पूर्ण उपयुक्त भाषा नहीं कहा जा सकता। लक्ष्य बन जाए तो व्यक्ति असत्य भाषण से काफी बच सकता है। सत्य के मार्ग में कठिनाइयां तो आ सकती हैं किन्तु जो आत्मतोष और प्रसन्नता एक सत्य संकल्पी व्यक्ति को प्राप्त होती है। वह अनिर्वचनीय है।
अदत्ताग्रहणम् अस्तेयम् 
परमात्मा आत्मा की परम निर्मल भूमिका है। दुरात्मा आत्मा की अति मलिनता की भूमिका है। इन दोनों के मध्य आत्मा के विभिन्न स्तर बनते हैं। साधना के द्वारा स्तर का क्रमशः निर्मलीकरण अथवा ऊर्ध्वीकरण किया जा सकता है। असत् से सत् की ओर गतिशीलता साधना है। अन्धकार (अज्ञान) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर प्रगतिशीलता साधना है। मृत्यु से अमृतत्व की ओर गमन साधना है। औदयिक भाव से क्षायोपशमिक, औपशमिक व क्षायिक भाव की ओर प्रयाण साधना है। आश्रव से संवरावस्था में क्रमशः परिणमन साधना है। कालिमा से धवलिमा की ओर गति साधना है। 
हमारा भाव-जगत् विभिन्न वासनाओं से परिपूर्ण है। उनमें मूल है लोभ। वह प्रेरक है। आदमी के द्वारा किए जाने वाले सभी बद्कृत्यों के पीछे उसकी प्रेरणा व आधार रहता है। उसी की निष्पत्तिरूप हिंसा, मृषावाद आदि विभिन्न प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं। चौर्य भी उसी का आत्मज है। आगमों में चोरी के अर्थ में अदिण्णादाण (अदत्तादान) शब्द का प्रयोग हुआ है। अदत्त का अर्थ है 'नहीं दिया हुआ' और आदान का अर्थ है ग्रहण। नहीं दी गई वस्तु का ग्रहण अदत्तादान (चोरी) है। स्तेय भी इसी का पर्यायवाची शब्द है। अठारह पापों में इसे तीसरा स्थान सम्प्राप्त है।
अदत्तादान दो प्रकार का होता है सचित्त अदत्तादान और अचित्त अदत्तादान। मनुष्य, पशु आदि सजीव पदार्थों का अपहरण सचित्त अदत्तादान है। रावण ने सीता का अपहरण किया, यह उसी कोटि का अदत्तादान है। धन, धाम, भूमि आदि निर्जव वस्तुओं पर अनैतिक स्वामित्व-स्थापन अचित्त अदत्तादान है। किसी दूसरे द्वारा रचित साहित्य को गलत तरीके द्वारा अपने नाम से प्रकाशित करना भी साहित्यिक चोरी है। किसी के लेख आदि को चुराने का अर्थ है उसके स्वामी को चाहे-अनचाहे कष्ट पहुंचाना। अतः यह एक तरह की हिंसा भी है। इस प्रकार के कर्मों का विपाक दुःखद होता है। व्यक्ति को सोचना यह चाहिये- 
अस्थिराणि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः।
  नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्त्तव्यो धर्मसंचयः।।
शरीर अस्थिर है, वैभव शाश्वत नहीं है। मृत्यु प्रतिक्षण निकटतर हो रही है, इसलिए धर्म का संचय करना चाहिए। चौर्य से विमुक्ति अचौर्य, अस्तेय अथवा अदत्तादानविरमण कहलाता है। साधु के लिए अदत्तादान-विरमण महाव्रत और श्रावक के लिए अदत्तादान-विरमण अणुव्रत पालनीय होता है। अचौर्य महाव्रत का विश्लेषण करने पर उसके ५४ भंग बनते हैं। १. अल्प २. बहु ३. अणु ४. स्थूल ५. सचित्त ६. अचित्त यह छह प्रकार की चोरी तीन करण, तीन योग से तीसरे महाव्रत में प्रत्याख्यात की जाती है। इस प्रकार ६ x ३ x ३ = ५४ भंग अचौर्य महाव्रत के बन जाते हैं। एक श्रावक भी एक सीमा तक अचौर्य व्रत का पालन करता है श्रावक क्या, कोई भी प्रामाणिकतानिष्ठ व्यक्ति अचौर्य की आराधना करता है।
तेरापन्थ के श्रावकों के इतिहास में सुजानगढ़ निवासी श्री रूपचन्दजी सेठिया का नाम सुप्रसिद्ध है। वे गृहस्थ होते हुए भी साधुतुल्य थे। व्यापार में वे पूरी प्रामाणिकता बरतते थे। उनकी दुकान पर किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी या मायाचार नहीं होता था। उस विषय में उन्होंने अपने सभी मुनीम-गुमाश्तों को सावधान कर रखा था। वे कहा करते थे कि बिना हक का पैसा 'जमाल गोटे का जुलाब' होता है, वह कभी टिक नहीं सकता। लेन-देन में भूल से किसी को कम दे दिया जाता तो अपने जमादार को भेजकर जितनी रकम बाकी रहती उसे व्यापारी के घर भेज दिया करते थे।