इन्द्रियातीत सुख पाने का करें प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
जिन शासन के उज्ज्वल नक्षत्र आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि हर व्यक्ति सुखी जीवन जीना चाहता है। सुख दो प्रकार के होते हैं—एक शारीरिक (भौतिक) सुख और दूसरा आध्यात्मिक सुख। पहला ऐन्द्रिय सुख है, और दूसरा इन्द्रियातीत सुख। कर्म-निर्जरा के द्वारा जो आनंद मिलता है, वह सच्चा सुख है। आठ प्रकार के कर्म बताए गए हैं। इनमें चार कर्म 'घाति' कहलाते हैं, और चार कर्म 'अघाति'। घाति कर्म आत्मा या आत्मा के गुणों का ह्रास करने वाले होते हैं। अघाति कर्म आत्मा के गुणों को नष्ट तो नहीं करते, लेकिन भौतिक सुख-दुःख के लिए जिम्मेदार होते हैं। चार घाति कर्म पूरी तरह से अशुभ और पापात्मक हैं, जबकि बाकी चार अघाति कर्म शुभ (पुण्य) और अशुभ (पापात्मक) दोनों हो सकते हैं। सामान्य व्यक्ति भौतिक सुख की कामना करता है, जो पुण्य के प्रभाव से प्राप्त होता है। अनुकूल परिस्थितियाँ और भौतिक सुविधाएँ पुण्य कर्मों का परिणाम होती हैं। भाग्य दो प्रकार के होते हैं:
1. मूर्त भाग्य : जो पुण्य कर्मों से प्राप्त होता है, जैसे भौतिक सुख या दुःख।
2. अमूर्त भाग्य : जो क्षयोपशम के परिणामस्वरूप मिलता है, जैसे बुद्धि, अच्छा स्वभाव, और अवरोधों की कमी।
सुखी जीवन के लिए कुछ सूत्र बताये गए हैं : l स्वयं को तपाओ और सुकुमारता का त्याग करो। l सुविधावादी प्रवृत्ति इतनी अधिक न हो जाए कि कठिन कार्य करने की इच्छा ही खत्म हो जाए। l भौतिक इच्छाओं को सीमित रखो।
l दूसरों को सुखी देखकर ईर्ष्या मत करो और दूसरों के दुःख पर आनंदित मत हो।
l सफलता के लिए बार-बार प्रयास करो, सफलता परिश्रम के जल से सींची जाती है।
l पुरूषार्थ भी सम्यक् होना चाहिए।
आवश्यक है कि पदार्थों के प्रति अवांछनीय राग न हो। केवल वर्तमान का नहीं, बल्कि भविष्य का भी ध्यान रखें। वर्तमान में पूर्व के पुण्य का फल भोग रहे हैं, लेकिन भविष्य के लिए धर्माराधना करें। मोक्ष प्राप्ति के प्रयास करें। सच्चा सुख आंतरिक होता है। भौतिक वस्तुएँ न भी हों, तो भी सुखी रह सकें। यही आध्यात्मिक सुख है, और इ